सोचता हूँ उस रोज़ इक ग़ज़ल लिखूँ

ललित कुमार द्वारा लिखित; 02 जून 2006

एक ग़नुक (ग़ज़ल-नुमा-कविता)…

सोचता हूँ उस रोज़ इक ग़ज़ल लिखूँ
जब मैं ज़िन्दगी को नामे-अजल लिखूँ

तुम कहती तो हो दुनिया बड़ी हसीन है
इन दुखों को किस बहार की फ़सल लिखूँ

यारों को हाले-दिल लिखा तो ये हुआ
अब नाम भी अपना संभल संभल लिखूँ

कैसा नादान हूँ छोटे से घर में बैठ के मैं
ख़त पर जगह पते की उसका महल लिखूँ

ज़िन्दगी ग़मज़दा ही सही पर मिली तो है
इसके लिये मैं सबसे पहले उसका फ़ज़ल लिखूँ

9 thoughts on “सोचता हूँ उस रोज़ इक ग़ज़ल लिखूँ”

  1. Wow… another fascinating and fantastic gain in ur Famous Photographs series. I’ve heard about Nebula but the research and information provided (spl. the last paragraph) is very interesting.
    By-d-way, where is the “Did u know?” facts???

    Good!!!

  2. कुछ ग़मज़दा तो हम भी हैं इस  ज़माने में 
    लाखों  अरमान जलते हैं इस सर्द दिल के वीराने में umeni maahi

  3. राजेन्द्र स्वर्णकार

    ललित जी ,, 

    आपकी मिसाल आप ही हैं …
    गनुक कहीं अन्यत्र पढ़ी न सुनी 🙂 बहुत ख़ूब ! 

    बहुत बहुत शुभकामनाएं आपके लिए … !

  4. ज़िन्दगी ग़मज़दा ही सही पर मिली तो है
    इसके लिये मैं सबसे पहले उसका फ़ज़ल लिखूँयह कृतज्ञता हम सबके हृदय में ज्योत बन कर जलती रहे!

  5. Neetu Singhal

    Game Jindagi Mili, Gamjadaa Hi Sahi..,
    Sabase Pahale-Pahal, Mei Usaka Fajal Likhun…..

  6. LALIT JI APP KI KAVITA ME JIVAN KI SACCHAI NAJAR AATI HAI
    ANDHAKAAR BHARE IS DUNIYA ME SAHASH KI JYOTI NAJAR AATI HAI
    KYA KAHO MAI APKE RACHNAO KE BAARE ME,DHUNDHE SE BHI KOI KHAS ALFAJ NAJAR NHI AATI HAI
    AISE HI KAYAM RAKHNA APNE LEKHO ME SADGI APKI LEKHO ME SANSHAR KI GAHRAI NAJAR AATI HAI

    SONU RAWANI

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