बस इक बार

ललित कुमार द्वारा लिखित, 1 सितम्बर 2004

हृदय चाहता तुमको पाना, तुम बैठी सागर उस पार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

फूलों ने रंग त्याग दिए हैं, कलियाँ मुरझा कर टूट रहीं
बुलबुल गुमसुम सी बैठी है, कोयल देती अब कूक नहीं
बेल बिटप पल्लव उदास हैं, रूका हुआ अलि कली का रास
इन सबको जीवन दे सकता, तुम्हारे मुखमंडल का हास
मेरे मन उपवन से दखो, रूठ गई है बसंत बहार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

तुम आओगी विश्वास इसी पर, मैनें जीवन आधार किया
परे तुम्हारे अपने जगत का, नहीं मैंने विस्तार किया
नयन प्रतीक्षारत हैं मेरे, प्राणो में आशा की ज्योती
आभार तुम्हारी प्रतीक्षा का, क्या करता जो यह भी ना होती
निशि वासर में भेद नहीं है, बिना तुम्हारे सूना संसार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

खो दी शोभा और ऋतुराज, पतझड़ में बदल गए
समय की खा कर चोट, पाषाण भी हो जर्जर गए
निसर्ग का नियम यही है, जब भी है यौवन आया
उसी क्षण से मंडराने लगता, ढल जाने का साया
पल पल जगत है ढलता रहता, पर अजर रहा है मेरा प्यार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

सृष्टि तो है चल रही, पर मेरा जीवन ठहर गया
सुबह समय पर होती है, पर जाने कहाँ तमहर गया
समय रूका हुआ है मानो, कि बढे तभी जब तुम आओ
मेरे जीवन की घडियाँ ही कितनी, जो हैं आओ, संग बिताओ
हम दोनो ही तो हैं, इक दूजे के जीवन का सार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

स्मृति समान संदेश तुम्हारे, निरंतर आते रहते हैं
शब्दो में ही देख तुम्हे हम, प्रेम से निज लोचन भर लेते हैं
पढ़ते पढ़ते ही अधरों पर, एक हंसी जो खेल गई
यह नई दशा है मेरी, और अनुभूती भी यह नई
अब जब तुमने खींच लिया है, मत छोड़ना बीच मझधार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

बिना तुम्हारे सौन्दर्य के, कहो कैसे बहे काव्य सरिता?
बिना तुम्हारे प्रेम के कहो, कैसे करूँ पूर्ण कविता?
मैं पूर्णता पाऊँ तभी, जब तुमसे मिट जाए मेरी दूरी
बिना तुम्हारे हे प्रियतमा, मैं अधूरा, मेरी हर रचना अधूरी
दरस मेरे नयनों को दे दो, यही मैं चाहूँ बारम्बार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

हृदय चाहता तुमको पाना, तुम बैठी सागर उस पार
तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार

2 thoughts on “बस इक बार”

  1. तुम आओगी विश्वास इसी पर, मैनें जीवन आधार किया
    परे तुम्हारे अपने जगत का, नहीं मैंने विस्तार किया
    नयन प्रतीक्षारत हैं मेरे, प्राणो में आशा की ज्योती
    आभार तुम्हारी प्रतीक्षा का, क्या करता जो यह भी ना होती
    निशि वासर में भेद नहीं है, बिना तुम्हारे सूना संसार
    तुम आओ मुझे कंठ लगाओ, बस इक बार, प्रिय इक बार…

    bas yahi intezaar to jeene ka aadhaar ban jaata hai….vishwas ka deepak jalaye rakhna chahiye….

    sunder rachna

  2. pare tumhare apne jagat ka na humne vistaar kiya…..

    ish pankti ka marm jan lena adbhut hai!
    abtak sari kavitayen padh li thi aapki… aur yehi bachi hui thi…
    sabse adbhut…. sanskaron mein sabse agraganiye…. anupam rachna!

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