मुझे कुन्दन बनने की चाह

ललित कुमार द्वारा लिखित, 03 जून 2004

सभी की तरह मुझे भी तलाश है। किसकी?… क्या किसी को भी इसका उत्तर पता है कि उसे वास्तव में किसकी तलाश है? यह कविता मेरे जीवन, इस तलाश और इस तलाश की राह में आने वाल कठिनाइयों का वर्णन करती है…

मुझे कुन्दन बनने की चाह, तपना तो होगा ही!

दुखों का सागर मुझे ललकार रहा
परम प्रकाश दिखला अपने पार रहा

छीन लिए पतवार भी मुझसे
छोड़ गए जो साथी कुछ थे

हृदय जो काँपे भय से तो क्या
यदि नौका मिली है टूटी तो क्या

निश्चल, अविजित मन हो मेरा
संध्या जानूँ ना जानूँ सवेरा

शरीर साथ दे, ना दे, चुनौती मैं स्वीकारूगाँ
विश्वास साथ दे, ना दे, पर हार नहीं मानूगाँ

जीवन पथ कठिन है, मेरा पर चलता जाता हूँ
पीड़ा के इस दावानल में, भस्मीभूत हुआ जाता हूँ

किन्तु!

मुझे सूरज बनने की चाह, जलना तो होगा ही
मुझे कुन्दन बनने की चाह, तपना तो होगा ही

6 thoughts on “मुझे कुन्दन बनने की चाह”

  1. दुखों के सागर पार जो परम प्रकाश दिख रहा है वो थामे है आपकी बाहें..
    संध्या और सवेरे के आवागमन से बेखबर …… अनवरत चलती हैं राहें..

    beautiful poem that is capable enough to provide strength to anyone who reads it………

  2. शरीर साथ दे, ना दे, चुनौती मैं स्वीकारूगाँ
    विश्वास साथ दे, ना दे, पर हार नहीं मानूगाँ…

    sharir saath naa de…lekin sharir se uper ek cheez hai jo hai hamari atma…aur humen badhna hoga uske bal ke sahare…hum kyun haar maane agar hum me aatmbal sabse zyada hai….!!!
    Prerna deti hui in panktiyon ne mugdh kar diya!

  3. :], Aaap Kundan banchuke hain Lalitji, tabhi tou jo bhi aapke sampark main aata hai woh sona ban jaata hai.

    निश्चल, अविजित मन हो मेरा
    संध्या जानूँ ना जानूँ सवेरा…….

    bahut sateek aur, sanyam se darshaaee gayai panktiyaan hain. Bilkul ……

  4. मृदुल कीर्ति

    हे तापसी प्रवज्या के पथ-गामी!
    देह में लहू नहीं पीड़ा बहती है,
    सच में कसकन पीर घनेरी,
    भांति-भांति से सच कहती है.
    अब तो सूर्य स्वयं पिघला सा,
    स्वयं शिराओं में बहता है '
    है टूटी पतवार, अकेला,
    जीवन -सच यह ही कहता है.
    कौन किसी का हुआ आजतक,
    हो पाना भी, किसके वश है.

    नीर-पीर से परे परात्पर,
    'मामेकं शरणम् व्रज' सच है

  5. मैं पहली बार इस ब्लॉग पर आने की हिम्मत जुटा सका हूँ. मन में एक शंका बनी रहती थी कि भला अंग्रेज़ी में लिखने वाले व्यक्ति को हिंदी-वह भी कविता से क्या सरोकार! लेकिन यहाँ आ कर, भरी बरसात में खुद को पानी-पानी महसूस कर रहा हूँ. आप की कविता उन तेवरों के साथ है जिसकी हम युवा पीढ़ी से अपेक्षा रखते हैं. श्रम, पीड़ा, दुःख झेल कर ही मंजिल हासिल होती है, आपने बेहद सरल शब्दों में, कविता के रूप में, इस संदेश की सफलतापूर्वक रचना की, बधाई तो देनी ही पड़ेगी.

  6. इस चाह/अभिलाषा ने प्रेरणा के कई श्रोत बाँध रखे हैं:)

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