बिना तुम्हारे दीवाली फिर

ललित कुमार द्वारा लिखित; 19 अक्तुबर 2005

दीपावली पर हर कोई चाहता है कि वह अपने प्रिय व्यक्तियों के करीब हो। कई वर्ष पहले यह रचना दीवाली के आस-पास लिखी थी। हर दीवाली पर मुझे इस कविता की याद आ जाना अब एक परम्परा-सी बन गई है।

कण-कण में भर गयी उमंग है
प्रकाश महोत्सव आ जाने से
मन के दिए में नहीं लौ संग है
पर्व दूर बहुत है मुझे भा जाने से
तुम आयी थी तो दमक उठी थीं, किन्तु
हृदय वीथियाँ हो गयी हैं काली फिर
बिना तुम्हारे दीवाली फिर

बाँट सकूँ नहीं साथ तुम्हारे
वो सुख क्या मुझको हर्षायेगें
दीपावली के यह दीपक सारे
जलना मेरा ही दर्शाएंगे

ज्यों-ज्यो बढ़ रही जगत में रौनक
मन होता जा रहा है खाली फिर
बिना तुम्हारे दीवाली फिर

5 thoughts on “बिना तुम्हारे दीवाली फिर”

  1. अपनो के जाने पर उत्सव मनाने का उत्साह फीका पड जाता है। बहुत भावमय रचना है। धन्यवाद। आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामना

  2. Diwali ke paavan parv par bhi aapne apne dil me bhare dard ko ujaagar kiya hai…
    Jaane wale man jo peeda chhod gaye hain wo to hum kam nahi payenge…magar naye doston par bharosa rakhiye…ishwar se dua hai ki apke dost apki jholi khushiyon se bhar payen!!
    Diwali mubarak!

  3. दिया और बाती
    का संयोग
    जगत की
    सबसे
    अनुपम घटना है!
    प्रज्वलित
    हो जाये जो
    फिर तो
    अन्धकार को
    निश्चित हटना है!
    संयुक्त हो
    दीप
    अपनी बाती से
    जीवनपाठ
    अकेले नहीं रटना है!
    अब घटित हो
    जो न हुआ अबतक
    प्रगट हो जाये
    अब, जो अबतक
    तेरी कल्पना है!

    dher sari shubhkamnaon sahit!!!

  4. Apki parchaaiyoon se roshan huye hain na jaane kitane hi Ghar,

    Man main gyaan ka ujala aur tan main ujjwal agni si kaanti liye,

    Aapne pawan kiye hain kitane hi ghar!!!

    Apko aur pariwar ko Deepawali ki Hardik Shubh Kaamnaayain :]

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