ललित कुमार द्वारा लिखित; 03 जनवरी 2004
गंतव्य दूर नहीं दिखता
पथिक हूँ पा ही जाँऊगा
थक कर चूर हूँ इतना प्रिये
फिर लौट नहीं मैं पाँऊगा
उन ईश के पीताम्बर को ओढ़
गोद में उनकी सो जाँऊगा
गंतव्य दूर नहीं दिखता प्रिये
पथिक हूँ पा ही जाँऊगा
तुम्हें भी तो मैनें ईश सम जाना है
आंचल को तुम्हारे जीवन भर
मैनें सम पीताम्बर माना है
पीताम्बर हो या आंचल तुम्हारा
सुख-निद्रा यहाँ मिले या वहाँ मिले
क्या अंतर यदि मैं
प्रेम की छाँह तले सो पाँऊगा
पथिक हूँ गंतव्य पा ही जाँऊगा
पथिक हूँ जीवन पथ का, रूक नहीं सकता
और गंतव्य आज मुझे दूर नहीं दिखता
मुड़-मुड़ कर मैं क्षितिज निहारता हूँ
हौले-से नाम तुम्हारा पुकारता हूँ
दे दो मुझको और पा लो मेरा प्रेम अन्यथा
मैं जाने किस क्षण खो जाँऊगा
प्रिये! फिर लौट नहीं मैं पाँऊगा
पथिक हूँ गंतव्य पा ही जाँऊगा
मुड़-मुड़ कर मैं क्षितिज निहारता हूँ
हौले-से नाम तुम्हारा पुकारता हूँ
दे दो मुझको और पा लो मेरा प्रेम अन्यथा
मैं जाने किस क्षण खो जाँऊगा
बहुत सुंदर पंक्तियां हैं…
kavita mein antarvirodh spasta hai .gantavya pane aur nahi laut pane ki baat kavita mein ek dusre ko katti hai
bhaavo ko achhi kalam ka sahara diya hai aapne…
उन ईश के पीताम्बर को ओढ़
गोद में उनकी सो जाँऊगा
sundar!
jise pitambar dhrashtavya hai…
prapt use har gantavya hai…
subhkamnayen…
मुड़-मुड़ कर मैं क्षितिज निहारता हूँ
हौले-से नाम तुम्हारा पुकारता हूँ
दे दो मुझको और पा लो मेरा प्रेम अन्यथा
मैं जाने किस क्षण खो जाँऊगा………..
Bahut khoob Lalitji, aur apne khud zindagi ke mahetva ko samajhte huye na jane kitane pathikoon ko disha dikhayee hai, prem aur sadbhavna se parpoorna kiya hai, unke gantavya ko paane main patwar sa saath diya hai!
Aap ki rachnaaon main Zindagi Basti hai!