ललित कुमार द्वारा लिखित, 14 मार्च 2012
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं…
तुम्हे तो तुम्हारी राह मालूम है
वही राह जो पहले से मौजूद
पक्की सड़कों से बनती है
तुम जहाँ भी जाते हो
उन्हीं सड़कों के दोनों ओर
ऊँची इमारतें बढ़ाते जाते हो
सोने-चांदी की खोज में
बड़े गढ्ढे बनाते जाते हो
इमारतें, सोना, चांदी और गढ्ढे
क्या यही तुम्हारी मंज़िलें हैं?
और मेरी मंज़िलें?…
मैं तो दिशाहीन हूँ, गंतव्य-विहीन हूँ!
मेरी राहें तो, ऐ दोस्त, अक्सर
घने जंगलों से गुज़रती हैं
वहाँ, जहाँ पहले कोई नहीं गया
वहीं पर…
मैं पगडंडी बनाता जाता हूँ
कुछ दीप जलाता जाता हूँ
कुछ गाँव बसाता जाता हूँ
कुछ बाग लगाता जाता हूँ
कुछ फूल खिलाता जाता हूँ
क्योंकि…
मैं दिशाहीन हूँ
मैं गंतव्य-विहीन हूँ!
Robert Frost की एक कविता है The Road Not Taken…
आप दो तरह के लोगों की बात कर रहे हैं, और इस कविता में कवि दो तरह के रास्तों की बात करता है… और अंत में कहता है:-
I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I,
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.
आपकी कविता में दिशाहीन जिसके लिए प्रयुक्त हुआ है वही है दिशाओं का
निर्माण करने वाला दूसरे तरह का व्यक्ति जो दूसरा रास्ता चुनता है और
दिशाहीनता की चरम सीमा पर वह अध्याय लिखने की शक्ति रखता है जो घिसी पिटी
राह पर चलने वालों के लिए अकल्पित है!
दिशाहीनता की अनुपम परिभाषा गढ़ने वाली कविता को नमन!
very nice
मैं दिशाहीन हूँ
मैं गंतव्य-विहीन हूँ! ….
अगर ऐसा होने से किसी को बीहड़ में रास्ता मिल सकता है ….अंधेरों में रौशनी मिल सकती है …जीवन में ख़ुशी और हरयाली फैल सकती है ….तो गंतव्य विहीन और दिशाहीन होना ही अच्छा ….
बहुत सुन्दर कवीता | दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं | यकीनन | इक़ बनी हुई राहों पे चलते हैं | दूजे अपनी राह खुद बनाते हैं | इक़ सड़क पर गर्व से सीना तान कर चलते है | दूजे उन्ही राहों के किनारे फूल खिलाते हैं | इक़ वो जो रातों को गहरी नींद में सोते हैं | दूजे वो जो दीप बन के दहलीजों पे सारी रात जलते हैं | इक़ वो जो अपने अभिमान में , दंभ में झूठी शान में जीते हैं | जो हर रिश्तों को सीढियों की तरह , ट्राफी की तरह इस्तेमाल करते हैं | दूजे वो जो दूसरे की ख़ुशी के लिए सीढ़ी बन जाते है | तेल बन जाते है | बाती बन जाते है | जलते रहते है | इक़ बार, इश्वर ने , कहा –आज ,आप सभी के जीवन का अन्तिम दिन है | जाओ सभी अपनी कीमती और महत्वपूर्ण चीजों को ले आओ | और उनके साथ आज का अंतिम दिन बिता लों | लोग बेहताशा भागे | कुछ पुरुष , शराब और शबाब में डूब गए | कुछ महिलाये गहने और कपड़ो में उलझ गयी | कुछ महिला और पुरुष , दौलत पर लड़ पड़े | कई भाई जमीन और मकानों पर भिड गए | लेकिन दूजे किस्म के लोग { यकीनन ललित जी उसमे सबसे आगे आगे चल रहे थे ) ये लोग अपने दोस्तों को काल कर रह थे | उनसे संपर्क कर रहे थे | और कह रहे थे ” ओये मेरे जीवन की सबसे कीमती चीज मेरे दोस्त है | और तुम सब को इस समय मेरे पास होना चाहिए | आज मेरे जीवन का अन्तिम दिन है | मेरे जीवन भर की कमाई मेरे मित्र ही तो है | सुना है ये देख कर इश्वर की आखें भी भर आई | सच है दुनिया में दो तरह के लोग होते है |
मैं दिशाहीन हूँ
मैं गंतव्य-विहीन हूँ!,,,,,, THAT’S WHY U R UNIQUE…
ललित जी बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी
लिखा आपने |मैं जो समझा –
नव सृजन होता है जिनसे,वे छोड़ते लकीर को |
शिव रूप हो पीते हलाहल,
कौ जाने उस फकीर को |
उनके पद चिन्हों से,
नई राह बन जाती है |
नत मस्तक होता काल वहां,
जब उससे ठन जाती है |
पूर्णतया नया विचार सोचने के लिए मजबूर करता है! साधुवाद!
मेरा ब्लॉग है …www.nityanitya.wordpress.com
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मैं पगडंडी बनाता जाता हूँकुछ दीप जलाता जाता हूँकुछ गांव बसाता जाता हूँकुछ बाग लगाता जाता हूँकुछ फूल खिलाता जाता हूँ
दिशाहीनता की नई परिभाषा …समाज की बेहतरी के लिए यह दिशाहीनता वरदान है !
really nice dost.
aapne is poem se apni durdarshita phir e sabit kar di.
thhanks for this golden poem
Sad karyon k liye rahen kathin hi hoti h.Ghane jangalon se hi gujati h