ललित कुमार द्वारा लिखित; 26 अगस्त 2003
एक पुरानी कविता…
जिसकी याद हमें है आती
चलो मन ढूँढे अपना साथी
हस्ती जिसकी सागर जैसी
नहीं जो इक नदिया बरसाती
जिसकी याद हमें है आती
चलो मन ढूँढे अपना साथी
लज्जा से झुकती हैं वे
उत्सुकता से उठती हैं
अधरों से भी अधिक मुखर
बातें प्रेम की करती हैं
कजरारी, मनभावन, चितवन
ऐसी हैं अँखियाँ शरमाती
जिसकी याद हमें है आती
चलो मन ढूँढे अपना साथी
झर-झर झर-झर झरने झरते
जहाँ पक्षी प्रेमी कलरव करते
सुगंध उठाए हवा है चलती
किरण फैलाये उषा निकलती
बसी पहाड़ो बीच कहीं पर
सुन्दर-सी वो प्रेम की घाटी
जिसकी याद हमें है आती
चलो मन ढूँढे अपना साथी
मिली नहीं बस कल्पना है
वो स्वप्न-गृह की अल्पना है
सुन्दर-सा घर होगा अपना
सच होगा मेरा देखा सपना
इस कल्पना के सच होने की
है मुझे प्रतीक्षा दिन-औ-राती
जिसकी याद हमें है आती
चलो मन ढूँढे अपना साथी
हस्ती जिसकी सागर जैसी
नहीं वो इक नदिया बरसाती
जिसकी याद हमें है आती
चलो मन ढूँढे अपना साथी
स्वप्न गृह की अल्पना अब जल्दी ही वास्तविक धरा पर अवतरित हो!
शुभकामनाएं!
aapki is kavita se kuchh yaad aa raha he. lagta he mujhe bhi apni diary kholni hi hogi
mujhe yeh kavita achhi lagi
like this
kalpana ya satya ye to aap hi jaane …pr wastav me sabd nahi hai tarif ke liye .