ललित कुमार द्वारा लिखित; 22 अप्रैल 2011 को सायं 6:00
कुछ दिन पहले मैं प्रकृति के बीचो-बीच पहुँचा था… वही पर अपने कमरे की खिड़की से मैंने जो देखा और उस समय मेरे मन में जो भाव उठे, उन्हीं का इस कविता में वर्णन है… साथ में लगा चित्र भी मैंने उसी खिड़की से खींचा था…
पश्चिम में डूबते सूरज ने
हज़ारों रंग थे बिखराए
कई तो आंखो के आगे
पहले कभी नहीं थे आए!
घड़ा चांद का आकाश में लटका
उड़ेल रहा था चांदनी
दृष्टि की सीमा तलक
ठोस, गहरे अंधेरे से बनी
बिखरी हुई थीं पहाड़ियाँ
नीरवता के बोल बोलती
उस घाटी में बिजली नहीं थी
कोई आहट, कोई आवाज़
सरसराहट भी कोई नहीं थीख़ामोश
बिल्कुल… ख़ामोश!
धरती के उस कोने में
मैं विशुद्ध प्रकृति से मिला था
अपने कमरे की खिड़की से
अनछुए, अविकार, अविचल
निसर्ग के सच को देख रहा था
रंग, चांदनी, नीरवता
मन को हर्षित करते थे
हल्का अंधियारा, निपट एकांत
और थोड़ा-सा सूनापन
इस मन में शांति भरते थे
मैं आनंद की झील बना था
जिसमें लहर कोई ना उठती थी
संगीत भरी मन की नदिया थी
जो ना बहती थी ना रुकती थी
कई दिन बीत चुके हैं लेकिन
आज भी संध्या जब-जब
घड़ा चांद का भर-भर
चांदनी को बिखराती है
अनायास ही वो मुझे
इक खिड़की की याद दिलाती है!
maano pura nazaara aankhon ke samne aagyaa…mantramugdh kar dene wali rachna
shabon ka chayan bada achchha kar lete hai aap
प्रकृति के पहलूँ से रूबरू करवाती खुबसूरत एहसासों से भरी रचना |
मैं आनंद की झील बना था
जिसमें लहर कोई ना उठती थी
संगीत भरी मन की नदिया थी
जो ना बहती थी ना रुकती थी
बहुत खूब लिखा है…पढ़ कर आनंद आ गया!