इल्तिज़ा-ए-ज़र्रा

ललित कुमार द्वारा लिखित, 17 अप्रैल 2012

यह एक धूल के कण की दरख़्वास्त है। अपने प्रिय के कदम चूमने कि जिस इच्छा को उसने उम्र भर अपने दिल में संजोया; आज उस इच्छा के पूरे होने के आसार दिखने लगे हैं… लेकिन… कुछ इच्छाएँ मन में दम तोड़ देने के लिए बनी होती हैं…

तुम बेवजह ख़ुद को परेशान ना करो

मैं गर्द का एक ज़र्रा जो बेठिकाना ठहरा
गिरफ़्तारे-सबा हूँ मुझे तो उड़ जाना ठहरा
तुम्हारी राहें पोशीदा हुई हैं सुर्ख़ फ़ूलों से
खुश्बुओं का गलीचा हर सू बिछा हुआ है
परिंदे भी गाते हैं मौसिक़ी के उसूलों से
तेरे नाज़ुक पैरों में चुभने को नहीं आया मैं
बस इक हसरत थी तेरे मुकद्दस पाँव तले
शायद पाबन्दी-ए-हवा से छूट जाता मैं
जिस तरह सँवरी है याँ तकदीर फूलों की
वैसे ही आवारगी से रिश्ता तोड़ पाता मैं

काश कुछ मेरे बस में भी होता या रब
हवा ने ला पटका है याँ अंगार के ऊपर
मौका-ए-कदमबोसी अब हासिल नहीं होगा
पल ये मैंने पाया था, हाय उम्रें कई खोकर
क्योंकि मैं तेरी दुनिया-सा नहीं खूबसूरत हूँ
मुझे दुनिया से तुम्हारी मिटा देते हैं लोग
तेरे हसीनो-मुकद्द्स कदमों की चाहत है
मुझे मासूम-सी चाहत की सज़ा देते हैं लोग

लो फिर से आ रहा है झोंका हवा का गहरा
मैं गर्द का एक ज़र्रा जो बेठिकाना ठहरा
गिरफ़्तारे-सबा हूँ कि मुझे उड़ जाना ठहरा
दूर तुमसे ले जाएगी दुश्मन है ये हवा मेरी
इल्तिज़ा है कर दो उम्मीद फिर जवाँ मेरी

बस इक नज़र देख लो चाहे पहचान ना करो
फिर तुम्हारी दुनिया से गुज़र जाऊँगा मैं
तुम बेवजह ही ख़ुद को परेशान ना करो

5 thoughts on “इल्तिज़ा-ए-ज़र्रा”

  1. Khalid Bin Umar

    Lalit Bhai – Masha Allaah ! Bohat Khoob , Allah Kare zor-i-Qalam aur zyada. Khayalat ka ek darya maujzan hai , alfaz pareshan hain ……..

    Khair Andesh
    Khalid Bin Umar
    khalidkoraivi@yahoo.com/khalid.umar@in.ey.com

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