ललित कुमार द्वारा लिखित; 20 फ़रवरी 2012 सायं 6:00
एक नई रचना… बस यूँ ही लिख दी…
मैं ख़्वाहिशमंद हूँ
असीरी का
अपनी ज़ुल्फ़ों को
आज़ाद कर दे
काली लपटों की नर्मगी
मुझ पे बिखरा दे
आ जा कहीं से तू
रात से पेशतर जहाँ में
रात कर दे
अब आ भी जा के
गुलो-ख़ुश्बू हुआ है
ज़र्रा-ज़र्रा चमन का
ऐसे में तन्हा शाम
कितनी भारी-भारी है
तेरे होने का अहसास
मौजूद है आस-पास
मगर…
खाली-खाली-से
पहलू को मेरे
आ के ओ हमनशीं
आबाद कर दे
मैं ख़्वाहिशमंद हूँ
असीरी का
अपनी ज़ुल्फ़ों को
आज़ाद कर दे
Lalit I shared your lovely poem in the “I am India..” group – hope its okay with you
beautiful!
may the lovely wish attain fulfillment…
बस यूँ ही… लिखते रहिये!
Pleasure is mine Neena 🙂 Thank you!
bahut khoob
छुअन से तेरी महक जाता था मै.
कभी बिना पिए भी बहक जाता था मै.
तेरे ख्वाबो की तो अब आदत सी हो गई है
न सोचू तुझे तो और भी तनहा हो जाता हूँ मै .