ललित कुमार द्वारा लिखित, 10 अगस्त 2004
आज दिल्ली में तेज़ बारिश हुई। यूं लग रहा था जैसे कि वर्षा की बूंदों का एक पर्दा-सा बन गया हो। इस पर मुझे अपनी यह पुरानी कविता याद आई…
धरती और अम्बर के बीच पानी के यह तार बांध
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
विगत स्मृतियाँ धुल–धुल कर नई होती जा रही
तुम क्यों इतना जल बरसाते हो?
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
उनके हर्षमय आंगन में जाओ, मुझ एकाकी के संग
तुम समय क्यों व्यर्थ गंवाते हो?
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
होगी खेलती बूंदों संग, मेंहदी-रंजित हथेली उनकी
यह सोचते ही तुम मेरे, ईर्ष्या-पात्र बन जाते हो
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
उनके केशों को छू कर आई, यह तुम्हारी पुरवाई
तभी तुम कोमल स्पर्श दे पाते हो
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
समय जिन्हे मिटाना चाहे, उन्हीं विगत पलों से मेरा
तुम चिर सम्बंध बनाते हो
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
धरती और अम्बर के बीच पानी के यह तार बांध
हे सावन! तुम कौन-सा गीत सुनाते हो?
धरती और गगन क्षितिज पर मिलते हुए से लगते हैं … पर वास्तव में ऐसा कुछ होता कहाँ है … रहस्य में ही तो सौंदर्य है …
धरती और अम्बर के बीच बूंदों की तार बाँधने वाला सावन जाने कौन गीत गाता है ….. शायद क्षितिज पर मिलते मिलते आसमान और धरा के बिछड़ जाने का दर्द ही रिसता हो सावन बन कर …. कौन जाने?
आँखों को नम कर जाने वाली हृदयस्पर्शी कविता !
Full of feelings but weak in poetics! Sorry dear!
There is nothing to be sorry about Manvendra ji 🙂 You are right in saying that this poem lacks the poetics. It is an old poem. We all develop with time. And even the already developed ones do sometimes write not-so-good stuff. On top of it, I am not a poet! 🙂 I really appreciate your honest opinion. This would increase the value of your praise for any other of my poems.
dil ke ekhaas jab beh nikalte hain to yun hi kuchh rach jata hai….shabdon ke dwara apne man me aayi bhavnaon ko sanjo dena koi aap se seekhe…
these random musings sometimes become invaluable treasures….loved reading!