ललित कुमार द्वारा लिखित, 26 अगस्त 2005
यह कविता मैनें आधी रात के करीब बिस्तर पर पड़े सोने की कोशिश करते हुए रची थी। उस समय बाहर आकाश में वर्षा के काले बादल छाए थे और वे ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे थे। कविता में मैनें यूं तो उन बादलों से एक सीधा-सा प्रश्न पूछा था लेकिन पता नहीं कैसे और कब बादलों और पूरी परिस्थिति का मानवीकरण हो गया…
गरज तो रहे हो नभ, पर बरसोगे कब?
मैं कब से सोचता आया हूँ कि
तुम अपने प्रेम की वर्षा में
सारी विरह वेदना बहा दोगे
प्रीत की रिम झिम फुहारों से
तुम तन मन मेरा भिगो दोगे
धूल बनी, उड़ती फिरती
जीवन की माटी को
तुम सींच मधुवन बना दोगे
अंगार से जलते पथ में मेरे
तुम शीतल बूंदें बिछा दोगे
झुकी घटा के रूप में, तुम मेरे निकट तो हो
पर मेरे बढे हुए हाथों को, परसोगे1 कब?
जो नष्ट हो गया आस का यह कोमल पौधा
तुम मेरी एक झलक पाने को, तरसोगे तब
गरज तो रहे हो नभ, पर बरसोगे कब?
1. परसना = छूना
barsega saawan jhoom jhoom ke…aise megh umad-ghumad kar ayenge aur dekhna apko bheego jayenge…tan sheetal hoga man tript hoga….ek barkha aisi avashya ayegi!!
Meghon sung atmiyata se kiya gaya ye vartalaap ati sunder ban pada hai!
kavi ke saath saswar hume bhi man ho raha hai ki badalon se prasn kar hi liya jaye….ki ……गरज तो रहे हो नभ, पर बरसोगे कब?????????????????
aapke swar mein kavita sun'na …. apne aap mein ek adbhut anubhav hai!
subhkamnayen….
baresega sawan mere bhai kya khub kikha hai aapne ………….mai sawan man hi pad raha hu is liye dil khus ho gaya ……….
“jeevan ki maaati” se aapka kya abhipraye hai..lalit ji…?????