ग़मे-हयात को मैनें लफ़्ज़ों में पिरोया है

ललित कुमार द्वारा लिखित; 29 जनवरी 2012

एक पुरानी ग़नुक (ग़ज़ल-नुमा-कविता) में दो नए अश’आर जोड़ कर पेश कर रहा हूँ…

ग़मे-हयात को मैनें लफ़्ज़ों में पिरोया है
इक नया गीत जुडा जब भी मन रोया है

तगाफ़ुल करने के बहाने बहुत हैं लेकिन
ना तो वो गाफ़िल है ना ही वो सोया है

बहारे-ग़म देख के तकदीर मुझसे बोली
गुले-मसर्रत मैनें कहीं और ही बोया है

तू ढूँढता है जिसको कहीं दैरो-हरम में दूर
दिल तो छोटा है वो रहता यहीं गोया है

ज़ुल्फ़े-यार की पेचीदा अंधेरी गलियों में
दिल को पाया है और कभी खोया है

7 thoughts on “ग़मे-हयात को मैनें लफ़्ज़ों में पिरोया है”

  1. बहारे-ग़म देख के तकदीर मुझसे बोली
    गुले-मसर्रत मैनें कहीं और ही बोया है
    i lived these lines the most…

  2. ‘इक नया गीत जुड़ा जब भी मन रोया है’

    हँसे मन

    फिर

    कोई गीत जुड़े,

    इस आस में

    कोई यहाँ

    कई रातों से

    चैन की नींद नहीं सोया है…!

    आप हमेशा खुश रहें…

    तकदीर ने ख़ुशी के फूल

    बोये हैं ज़रूर…

    हमने एक एक करके

    कितने ही सपनों को

    आपके लिए

    प्रेम से पिरोया है…!!

    आपकी बेमिसाल ग़नुक से प्रेरित कुछ विशुद्ध भाव आपके लिए:)

  3. I like the way one can access the meanings of the Urdu words. Helped me understand the poem much better.
    Well done Lalit ji!

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