मेरी कल्पना मेरा घर…

ललित कुमार द्वारा लिखित, 27 अक्तूबर 2002 को दोपहर 2:00

मेरी कल्पना…मेरा घर…

छोटा-सा घर, छोटा-सा दरवाज़ा
छोटी-छोटी खिड़कियाँ
आंगन में बनी हुई रंगोली
कोने में केले का एक झुरमुठ
बीचो-बीच लगाई हुई तुलसी
दीवारें ताज़ी लिपी हुई
मिट्टी से आती हुई सुगंध
आंगन के नीम पर
पंछियों का चहचहाना
धीमे-धीमे चलती हुई
सुबह की ठंडी बयार
नयी सुबह का संदेश देती
सूरज की सिंदूरी किरणें
एक नारी का ठंड से कुछ सिहरते हुए
आंगन में आना
तुलसी के नीचे दिये का जलाना
परिक्रमा पूरी कर
सूरज को जल अर्पित करना
भक्ति-भाव से नमस्कार कर भगवान को
कुछ जल्दी में घर के भीतर जाना
.
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यह मेरे घर की सुबह है
.
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मैं जाग चुका हूँ, पर उठना नहीं चाहता
मुझे प्रतीक्षा है किसी के आने की
आकर मुझे जगाने की
हल्की-सी मुस्कान है मेरे चेहरे पर
एक आनंद देती हुई प्रतीक्षा है
एक पल, जिसकी मुझे हर सुबह प्रतीक्षा रहती है
उसी पल की प्रतीक्षा है…
तभी किसी के नर्म हाथों ने मुझे छुआ
मेरी मुस्कान कुछ और बढ़ जाती है
आँखें खोली तो देखा
एक सुंदर देवी पास बैठी मुस्कुरा रही है
बालों से अब भी पानी की बूंदे लटकी हुई हैं
माथे पर एक छोटी-सी बिंदिया है
हाथ मेहंदी से रचे हैं
होठों पर मुस्कान है
पाँवों में झनकती चांदी की पाज़ेब है
साड़ी का हरा रंग
मेहंदी के रंग के साथ खूब खिल रहा है
वह अंजुली में कुछ सुगंधित पुष्प
मेरे लिये लायी है

मेरे आँखें खोलते ही
वीणा की झंकार-सी एक मधुर आवाज़
बड़े प्यार से कहती है… “उठो”
पुष्प मेरे सिराहने रख कर
वो बड़े चंचल-भाव से
मुझे खींच कर उठाती है
.
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यह मेरी हृदय-स्वामिनी हैं
.
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.
मेहंदी से रचे वो सुंदर हाथ
कलाइयों की उन चूड़ीयों को मैं आज भी छू सकता हूँ
उस समर्पण को मैं आज भी समझ सकता हूँ
मुखड़े को छुपा लेना अपने रंग भरे हाथों से
लाज के उस घूंघट को मैं आज भी देख सकता हूँ

हाँ… कुछ स्मृतियाँ बाकी हैं
पर वे धुंधली होती जाती हैं
दूर कहीं खोती जाती हैं
मेरे सपनों के घर में आज
उस देवी के वो मेहंदी रचे हाथ नहीं हैं
दर-ओ-दीवार में भी वो बात नहीं है
सपनें हैं, सपनों में वो घर भी है
पर सब कुछ टूट गया-सा लगता है
धूल का एक बवंडर छा गया-सा लगता है

फिर भी भुला नहीं पाता हूँ
सहेज कर रखता हूँ इन धुंधली होती
स्मृतियों को…
यही स्मृतियाँ तो रह गयी हैं
मुझे बताने को
कि कैसी थी
मेरी कल्पना
और
मेरा घर

14 thoughts on “मेरी कल्पना मेरा घर…”

  1. फिर भी भुला नहीं पाता हूँ
    सहेज कर रखता हूँ इन धुंधली होती
    स्मृतियों को…
    यही स्मृतियाँ तो रह गयी हैं
    मुझे बताने को
    कि कैसी थी
    मेरी कल्पना
    और
    मेरा घर….

    itni sunder kalpana…maano pariyon ki kahani ho…

  2. क्या घर है ,बहुत खुबसूरत और बेहद शांत और बेहद चित्ताकर्षक
    और कवि मन है ….
    कविता में इतना लालित्य
    नाम सार्थक कर दिया आपने
    दूसरी कविता लिखिए ….हम पढ़ना चाहेंगे

  3. अत्यंत ही खूबसूरत बयानी है आपकी !
    बेहद खूबसूरत रचना. १०/१०

  4. बहुत सुन्दर कविता हैं ऐसा लगा जैसे हम सपनो में खो गए हों | कभी हमारे ब्लॉग पर भी आये –

    jazbaattheemotions.blogspot.com

  5. kabhi kabhi kalpana haqeekat se jayada pyaari hoti hai
    hum usmein pura jee lete hain ek pal mein hi.
    bahut bahut badhayi ho itni sundar kalpana ki rachna ke liye.

  6. तेरी कल्पना …. तेरा घर
    स्मृति न रहे …और स्वप्न भी नहीं
    बल्कि वास्तवीकता बन जाये !!
    तुलसी आँगन में
    शोभायमान हो-
    कितनी ही कहानी कह जाये !!
    कवि को ढेर सारी शुभकामनाएं……………… सादर !!!!!!!!!

  7. bada hi sunder shabd chitra khinchdiya hai aapne /kalpana smratiyan swapn sabhi ka samavesh hai /INNOCENT AND SIMPLE YET VERY NICE .EACH AND EVERY WORD CONVEYS SOFTNESS OF FEELINGS .

  8. Indra Kumbnani

    aapki ki kavita ka jabab he nahi hai kya kahe shabdo ka akal par gaya hai.bus yahi ki atiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii uttam.

  9. आपके साथ आपके घर की सैर और आपकी कल्पना अत्यंत लुभावनी है! हर दिन प्रभु से यही प्रार्थना होगी कि आपकी कल्पना यथार्थ बने !

  10. * ज़िन्दगी एक बारकोड है   *

    ओ पेड़… तुम्हारा मीत खो गया है
    ओ पेड़… मैं समझ सकता हूँ
    ओ पेड़… तुम्हारे हौंसले को
    ओ पेड़… सकारात्मक सोचो!
    ओ पेड़, वो तो अमर बेल थी
    ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
    कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम
     

  11. * ज़िन्दगी एक बारकोड है   *

    ओ पेड़… तुम्हारा मीत खो गया है
    ओ पेड़… मैं समझ सकता हूँ
    ओ पेड़… तुम्हारे हौंसले को
    ओ पेड़… सकारात्मक सोचो!
    ओ पेड़, वो तो अमर बेल थी
    ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
    कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम
     

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