ललित कुमार द्वारा लिखित, 07 मार्च 2012
मेरी किसी बात में तुमको तो
कभी कोई बात नज़र नहीं आती
ख़बर है तुझको सारे आलम की
लेकिन ओ बेख़बर तुझे इल्म कहाँ
कि मेरी फ़िक्र का लम्हा-लम्हा
तेरी ख़ुशियों से ही वाबस्ता है
मुरझाएँ कलियाँ मेरी बला से
पड़ता हो कहीं अकाल मगर
तुझ पर तो ये अब्र-ए-मुहब्बत
देख यूँ ही दिन-रात बरसता है
माना के मैं तुझ जैसा नहीं
हसीन-ओ-ख़तीब-ओ-आलिम
फिर भी इक इंसान तो बेशक
मुझ जाहिल में भी बसता है
होती ही होंगी ग़लतियाँ मुझसे
कि मुझमें तुझसे आदाब नहीं
पर सरे-महफ़िल टोकना मुझको
क्या यही तहज़ीब का रस्ता है?
मैं बेअक्ल इक गुस्ताख़ हूँ माना
करम कर बख्श दे मुआफ़ी मुझको
जिस्म तो काबिले-जहाँ नहीं लेकिन
यकीं कर रूह मेरी शाइस्ता है
क्यूँ मेरी कमियों को ही देखता है तू
कभी देख मेरे आफ़ताबे-इश्क़ की ओर
वही तेरे हुस्न में उजाला भरता है
क्यूँ उस ओर तेरी नज़र नहीं जाती?
मेरी किसी बात में तुमको तो
कभी कोई बात नज़र नहीं आती
मैं बेअक्ल इक गुस्ताख़ हूँ माना
करम कर बख्श दे मुआफ़ी मुझको
जिस्म तो काबिले-ज़माना नहीं लेकिन
यकीं कर रूह मेरी शाइस्ता है….bahut hi khoobsurat khayal!!!
सचमुच! जो बात आपमें है वह किसी और में नज़र नहीं आती…
सुन्दर संवेदनशील हृदय से प्रस्फुटित बेहद सुन्दर रचना!
दिल की सच्चाई बयाँ करती सच्ची रचना !
माना कि बहुत मुश्किल है, इक इंसान बनना
मगर मुझे तो तुझमे ,इक इंसान नज़र आता है ||
शुभकामनाएँ!
एक सच्चाई बयाँ करती ,सच्ची रचना !
ये माना कि बहुत मुश्किल है,इक इंसान बनना ,
मगर मुझे तो तुझमे ,इक इंसान नज़र आता है ||
शुभकामनाएँ!
very nice indeed
क्यूं मेरी कमियों को ही देखता है तू
कभी देख मेरे आफ़ताबे-इश्क़ की ओर
वही तेरे हुस्न में उजाला भरता है
क्यूं उस ओर तेरी नज़र नहीं जाती?
क्या पंक्तियाँ हैं.
Dil k bahut kareeb lagi,jase meri hi dastan ho aur chashm nam ho aaye.