ललित कुमार द्वारा लिखित, 08 अक्तुबर 2006 को प्रात: 6:00
सितम्बर 2006 के आखिर में मैं पढ़ाई के लिये एडिनबर्ग (स्कॉटलैंड की राजधानी) पहुँचा। यह मेरे जीवन में पहला अवसर था जब मैं अपने परिवार से लम्बे समय के लिये दूर हुआ था। “एडिनबर्ग की सुबह” मेरी उस समय की दिनचर्या को बयान करती है। यह रचना मैनें एक झील के किनारे बैठ कर लिखी थी। इसमें एडिनबर्ग में दिनचर्या और मेरे मन में आने वाली घर की यादों का वर्णन है।यह रचना आल्हा नामक छंद में लिखी गई है जिसमें पंक्तियां छोटी होती हैं और पंक्तियों में “आय” के साथ तुक बनती है। आल्हा उत्तरी और मध्य भारत के बहुत से स्थानों पर प्रयोग होने वाला एक लोक छंद हैं जिसमें अक्सर वीर गाथाएँ गाई जाती हैं (विशेषकर आल्हा-ऊदल के शौर्य की कथाएँ… और इसी कारण इसका नाम आल्हा पड़ा है)। अब तो यह छंद बहुत ही कम प्रयोग किया जाता है। मैनें केवल एक छोटी-सी कोशिश की है।
मेरी स्वर्गीय दादीजी के लिये मेरा नाम ठीक से पुकारना थोड़ा मुश्किल काम था। वे मुझे “ललति” कह कर बुलाती थी। इस रचना में मैनें अपने इसी नाम का प्रयोग किया है।
एडिनबर्ग की सुबह है ये
इसकी बात कही ना जाय
ठंडा मौसम हवा चल रही
नभ में बादल रहे हैं छाय
चारो ओर भरी हरियाली
पंछी गीत हैं रहे सुनाय
सूरज खेले आँख मिचौली
धूप आए और कभी है जाय
झील किनारे हम बैठे हैं
गहरी सोच है होती जाय
बहुत कुछ सोच रहा हूँ यूँ तो
पर तुमको थोड़ी बात बतायें
मन में इस और उस सुबह की
तुलना हम हैं करते जाय
सुबह बनारस की सब जानें
निज घर उषा से बेहतर नाय
एडिनबर्ग में हैं हम फ़िर भी
दिल्ली की याद बहुत है आय
शोर-शराबे-औ-खींच-तान का
एडिनबर्ग में नाम है नाय
पर दिल्ली की बात और है
इसकी गलियाँ भूली न जाय
अपना घर सबसे भला है
जग है जिसमें जाय समाय
हो रहा होगा क्या वहाँ अब
इस पर कुछ पल ध्यान है जाय
यही सूरज वहाँ भी दिखता
यही धूप वहाँ रही सुहाय
पूजा और सुधा ने अपनी
रसोई में बैठक लई जमाय
कटने लगी है सब्ज़ी और
चाय का पानी दिया चढ़ाय
पापा, चाचा करें तैयारी
दिन बढ़िया शुरु हो जाय
मोटू, गट्टू और पुत्तु की
सुबह किसी से छुपी है नाय
बड़ी बहस का खेल है ये कि
पहले कौन तैयार हो जाय
गट्टू ने कुंडी बंद कर दी
अंदर पुत्तु रहा नहाय
“मम्मी मनीष को देख लो”
यही आवाज़ अब आती जाय
चाची की व्यस्तता मत पूछो
सुबह का खाना पका रही पकाय
माँ ने झाडू हाथ में लेकर
सफ़ाई का मन है लिया बनाय
बाद सफ़ाई के नहा-औ-धो कर
मंदिर में रही ज्योती लगाय
सुबह वही है काम वही हैं
बस अब उसमें ललति नाय
बस अब उसमें ललति नाय
बस अब उसमें ललति नाय
मन लौटा लाय हम एडिनबर्ग
चिंता रवि-सम चढती जाय
इसलिए अब हम उठ चलते हैं
घर जाकर पकाय औ खाय
फ़्रिज़ में तो कुछ भी ना पाया
खरीदारी को बाज़ार हम जाय
आकर नहाए-औ-तैयार हुए
अब बारी पकाने की है आय
रोटी जली, चावल कच्चा है
दाल का सूप है दिया बनाय
पर धीरे-धीरे सीख जाएंगे
नमक कितना डाले कितना नाय
कच्चा-पक्का जैसा भी था
वैसा खाना लिया है खाय
अब लेक्चर की शुरु तैयारी
फिर कक्षा में पहुँचा जाय
बस यही हमारी दिनचर्या है
मुश्किल है पर जीते जाय
जाने कौन बात है मुझमें
जो ईंधन बन कर जलती जाय
अनागत में कुछ दिखे नहीं है
फिर भी हम हैं चलते जाएं
फिर भी हम हैं चलते जाएं
फिर भी हम हैं चलते जाएं
[अनागत = भविष्य]
Such a picturesque description…!!! aisa laga ki main bhi ghoom ayi videsh…
aane wale kal ki umeed aur pichhe chhote apne desh ki yaden…bahut khoobsurti se ubhar kar ayin hain is rachna me…pathak man prasann huaa 🙂
साफगोई सीधी सपाट बयानी आपकी कविता का मूल भूत गुण है इसे बनाए रखें
हिंदी के वयोवृद्ध कवी भवानी प्रसाद मिश्र इसी प्रकार की कविता लिखते थे
साधुवाद
Wah
Kitna Bada SATYA likha hai yehan aapne Lalit bhai
” अपना घर सबसे भला है
जग जिसमें जाय समाय ”
aur Ye panktiyaan badee hee marmik hain
” बस अब उसमें ललति नाय
बस अब उसमें ललति नाय
बस अब उसमें ललति नाय ”
:-((
Humne bhee aisa anubhav kiya hai –
Edinburgh nahee per dusra naam de dijiye
Des aur Pardes ka fark , kabhee kam na hoga
sa sneh ashish
– Lavanya
bas ab usme lalit nay….
in panktiyon ki vedna mehsoos ki ja sakti hai ….
ati sundar aur bhaavpurna kavita….
so simple… so true and so touching!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
Bahut Sundar aur seedha! App ki lekhani main mitti ki khushbu hai Lalit. Aur cheezoon ko dekhne ka paak nazaria aap ki khasiyat hai……
Thank you for sharing such a precious poems. :]
Keep smiling, aache lagte hain!
Maja aa gaya lalit bhai…aur kuch aankhon main aansu bhi…
Thanks
lilit ji ne adinbarg ki subah me apne bachapan ki yadon ko bakhubi se sanjoya hai,sath me apne pariwesh ko bhi nahien bhula payey hain. adinbarg ki subah ka warnan bakhubi se nibhaya hai. apne desh or pariwesh ki mehak kuchh aur hi hoti hai.
जाने कौन बात है जो मुझमें ईंधन बन कर जलती जाय
too good! I bow and salute your indomitable spirit !
Good to read the poem again…
Actually, now I’m dreaming of a poem penned by you titled…. “stockholm ki subah”:))
rachna itni sundar hai ki
kehne ko kuch kaha na jaye