रात से सुबह तक

ललित कुमार द्वारा लिखित, 09 जुलाई 2010

कई दिन बीते एक मित्र ने कहा था कि कुछ नया लिखिये और उसे इस साइट के ज़रिये पढ़वाईये। कल रात मैनें एक लम्बे समय के बाद कुछ लिखा जो यहाँ प्रस्तुत है…

ख़ु्शी, मुस्कुराहटें
टीस की फिर आहटें
पुलकित हुआ तभी
मन ने आंसूओं केहज़ार मोती चुगे!

रात भर, रात पर
हम पड़े सोचते रहे
दर्द का उठाए हल
निज-मन को जोतते रहे

शायद ख़ुशी उगे!

रात गई
खुला सुबह का बाड़ा
सह लिया, था मन में दर्द समाया
रात्री-वृक्ष ने वेदना-फूल

और फल दिये!

सुबह हुई
हमनें रात को झाड़ा
तह किया, बगल में उसे दबाया
पथ के निहारे शूल

और चल दिये!

11 thoughts on “रात से सुबह तक”

  1. रात गई
    खुला सुबह का बाड़ा
    सह लिया, था मन में दर्द समाया
    रात्री-वृक्ष ने वेदना-फूल
    और फल दिये

    adhbut!!
    tareef ko shabd kam hai,…

    apne man ke bahut kareeb paya is rachna ko…

  2. Har Raat ke baad subah, Nayee aati hi hai
    Uss Subah ko bhi aana padega, Apke aagosh main
    Aur kehna padega, Bahut intazaar karwaya….
    Ab kabhi nahi jaaoongi….

    Yeh jo Khushiyoon ka daaman tumne thame rakhaa tha,
    Wahi mera, haath keech laya…aapke liye…..
    Woh aahatain aur baarishain, aasuoon ki,
    Mere kaanoon ko cheerti hui nikal gayee, aur main rook na payee apne kadam!

    Samaye ke moti, Chugte rahoo tum,
    Kya hua jo, kuch shool ghayal kar gaye,
    Woh Nishaan chood gaye hain, aapke khoon ke,
    Jo kisi bhi aasoon se na dhulegainge……….

    Har ek patta gawahi dega, ki Lalit ne kis shidaat se chuge hain yeh moti
    In par sirf Unka haq hai,
    Lad jaayega woh uss Khuda se bhi, jisne ………

    Yahi dua hai haamari, ki woh pal bas jald hi aaye,
    Jiska intazaar ham sabhi ko hai……..
    Kush rahain aap aur, thaamain rahain daaman Ummeedoon ka,
    Baki Khuda se tou haum Jiraah kar lainge!!!

  3. Rat ko jhada ek abhinav prayog hai, manvikaran to bahut log karte hain par ye naya prayog hai. congrats

  4. Alka Sarwat Mishra

    रक्षा करें प्रभु ! मार्ग में जो शूल हों, वे फूल हों

    नयी कविता लेखनी की प्रौढता का आभास दिला रही है

  5. मृदुल कीर्ति

    रात की जब तह बनाना आ गया,
    मर्म जीवन का समझ लो पा गया.
    अब उठो, कुंठा बुहारो,

    शक्ति के आँगन में तुलसी,
    दीप चौबारे में बारो.
    ज्ञान की इस अल -सुबह में
    आरती का स्वर उभारो.
    काम अपनी शक्ति आती,
    राह तो चलती नहीं.
    मन के सञ्चालन बिना भी
    ध्येय तो मिलता नहीं.

  6. सुबह हुईहमनें रात को झाड़ातह किया, बगल में उसे दबायापथ के निहारे शूल
    और चल दिये!अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति ! काश! ये झाड़ना , बगल में दबाना इतना सरल और सहज होता जितना आपकी रचना में प्रतीत होता है !

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