पिंजरा और मैं

ललित कुमार द्वारा लिखित; 25 दिसम्बर 2011

आज मन में आए कुछ विचारों को इस कच्ची कविता में प्रस्तुत किया है…

तुमने प्यार से बुलाया
मैं उड़ता हुआ चला आया
ये भी नहीं देखा
कि तुम तो एक पिंजरा हो!

अपना दंभ दिखाने को था तुमने बुलाया
ताकत का अपनी गान खूब तुमने गाया
तुम्हें अभिमान था अपनी सलाखों पर
मुझे था भरोसा अपनी कोमल पाखों पर
ओ पिंजरे! घेर कर तुमने मुझे रुलाया
मैंने आँसूओं में फिर भी प्यार बहाया

जब तूने प्रेम को मेरे दुर्बलता मान लिया
तब मैंने भी मन में अपने ठान लिया
तेरे प्रति प्रेम मेरा रहेगा सर-आँखों पर
वज्र-सा गिरूँगा तेरे अहम की सलाखों पर
पिंजरा लेकर संग उड़ा मैं इतना ऊँचा
दूर बहुत अकल्पित ऊँचाई तक पहुँचा
फिर पिंजरा नीचे गिराया
और उससे बाहर निकल आया
अहंकार की कारा को तोड़ दिया
तेरे दंभ की सलाखों को मोड़ दिया

तेरा अहंकार तोड़ा है तुझे नहीं त्यागा
तू पिंजरा है पर मैं तुझसे नहीं भागा
तेरी सलाखें तोड़ना ज़रूरी था
तेरा अंतस झिंझोड़ना ज़रूरी था
मैंने तो बस वही किया है
अमृत दिया है, विष पिया है

आज सारा आकाश है मेरा
जहाँ चाहूँ चला जाऊँ
जिस ओर मन हो उड़ जाऊँ
पर आज भी दाना-पानी लेकर
तेरे करीब लौट आता हूँ
कुछ ख़ुद खाता हूँ
कुछ तुझे खिलाता हूँ
फिर तुझको अपना मान
टूटी सलाखों को बाहों में भर
सो जाता हूँ

प्रेम ने पंखो को वज्र किया था
दंभ ने सलाखों को जंग दिया था
तू टूटा ही सही पर
आज भी मुझे प्यारा है
हर साँस में दिन-रैन
तेरा नाम लिया करूँगा
निराश न हो ओ मीत
मैं तेरे संग हूँ
तेरी सेवा किया करूँगा

13 thoughts on “पिंजरा और मैं”

  1. Pahle draft ke hisaab se kavita achchhi hai.. jaldi final kariye, bharosa hai ki final tak pahunchte-pahunchte ‘Must Read kavita’ kahi jaayegi..

  2. बहुत सुंदर !!
    क्या बात है !!
    इन प्रतीकों के साथ बहुत बड़ी बात कह ब्दी आप ने 

  3. कल जब कवि पीड़ा में था… कविता जन्म लेने को थी… तब हम भी यहाँ पीड़ा में
    थे… प्रार्थना में भींगी आँखों से सूना आकाश निहार रहे थे… “सूना आकाश”
    पढ़कर , पहले ध्रुव भारत पर पढ़ा था, अब दशमलव पर (पूर्ण को अपूर्ण करने की
    ज़मीन पर) यह पढ़ कर किसी सुन्दर/पूर्ण/आशावान सम्भावना की और टकटकी लगाये
    ताक रहे थे…

    कविता जन्मी आपके यहाँ और यहाँ हमारी भी प्रतीक्षा ख़त्म हुई… “आज सारा आकाश है मेरा/जहाँ चाहूँ चला जाऊँ/जिस ओर मन हो उड़ जाऊँ” पढ़कर मन झूम उठा…
    प्रार्थनाएं असर करती हैं… सच्चे मन से की गयी प्रार्थनाएं सुनी भी जाती
    हैं… तभी तो कवि ने अपनी पीड़ा जीकर कल जो लिखा उससे हमारी पीड़ा हर ली
    गयी…!
    आभार इस प्रस्तुति के लिए:)

  4. वाणी गीत

    प्रेम के अद्भुत पलों में भी स्वाभिमान का संतुलन जरुरी है …खूबसूरत अभिव्यक्ति !

  5. क्या बात है ललित जी,………..बहुंत बहुंत धन्यवाद आपने कविता में सच्ची प्रेम की बखान कर दी 

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