मेरा वजूद इक सराब है

ललित कुमार द्वारा लिखित, 06 अप्रैल 2012

मृगतष्णा (सराब) अपने आप में एक अनोखी चीज़ होती है। मजबूर… अपने अस्तित्व से अनजान… उसमें आकर्षण है –लेकिन उससे किसी की प्यास नहीं बुझती… मृगतृष्णा मजबूर है… मृगतृष्णा एकाकी है…

मेरा वजूद
इक सराब है

मुझे देख राहें न बदल अपनी
देख, तू भी प्यासा रह जाएगा

वक्त की इब्तिदा से
आज तलक
मैं प्यासा रहा हूँ
और इंतिहा तक
यूँ ही प्यासा रहूँगा
फिर भी दामन में
इक उम्मीद बसाए रहता हूँ
कि आए कोई प्यासा
और मुझसे वो हासिल करे
जो मुझमें दिखता है
जिससे मेरी भी प्यास बुझ सके
और उसकी भी रूह को
सुकून आए

प्यासे तो बहुत आए, बहुत गए
पर मुझको न कोई पा सका
कोई कहता है कि मैं होता हूँ
लेकिन नहीं हूँ
कोई कहता है कि मैं नहीं हूँ
लेकिन होता ज़रूर हूँ
हैरत तो ये है कि
मैं ख़ुद भी नहीं जानता
मैं हूँ या नहीं हूँ!

मेरी जानिब
न क़दम बढ़ा मुसाफ़िर
वरना तू भी मेरी तरह
बन के इक तमाशा रह जाएगा

मुझे देख राहें न बदल अपनी
देख, तू भी प्यासा रह जाएगा

मेरा वजूद
इक सराब है

7 thoughts on “मेरा वजूद इक सराब है”

  1.  मृगतृष्णा अनोखी होती है… ये कविता भी अनोखी है!

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