ललित कुमार द्वारा लिखित, 17 जुलाई 2005
निज भविष्य की अंतिम सीमा पर
सोचूंगा खड़ा स्वयं को पाकर
कि तुम निकट होती तो अच्छा होता
अंत में प्रतीक्षा का अंत तो होता
अंधेरा समक्ष जब छाने लगेगा
उस और से कोई मुझे बुलाने लगेगा
नयन खोल तुम्हें ढूंढने का,
इक अंतिम प्रयास करूँगा
उस पल भी मैं तुमको याद करूँगा
हर्ष, विषाद, उल्लास या हो व्याकुलता
कोई और नहीं, सारे रूप समय ही धरता
चाहने और होने में होती बड़ी ही दूरी
जतन किये भी कई चाहत, होती नहीं पूरी
प्रयास करना ही बस, है मानव के वश में
नहीं जानते हम क्या, रखा नियती कलश में
उन अंतिम क्षणों में जब मैं,
इस सब पर विचार करूँगा
उस पल भी मैं तुमको याद करूँगा
उस राह, उस द्वारे से, जहाँ लगी रही दृष्टि मेरी
लूंगा विदा, जब होगी समाप्त सकल सृष्टि मेरी
मैं नहीं कर पाऊँगा¸ फिर और तुम्हारी प्रतीक्षा
असफल मैं, किन्तु होगी समाप्त जीवन परीक्षा
तुम्हे जाना और समझा, मेरा भाग्य था बस इतना
मेरी झोली थी छोटी, प्यार तुम्हारा सागर जितना
जीवन के लिए सर्वेश को जब,
मैं प्रकट अपना आभार करूँगा
उस पल भी मैं तुमको याद करूँगा
उस पल भी मैं तुमको याद करूँगा
प्रार्थना है ,
सारी चाहें हों पूरी
स्वप्न और वास्तवीकता के बीच की मिट जाये दूरी
सबकुछ हासिल हो … एक हाथ के फासले पे
क्यूँ रुला रही है हमे…. नियति की ऐसी क्या मजबूरी !!
अंतिम क्षणों ….. यादों….. नियति ….. अधूरे सपनो …. और सर्वेश के प्रति आभार की बात करती हुई हृदयस्पर्शी कविता !!
ढेर सारी शुभकामनाएं…
bahut sunder kavita hai lalit ji. prateekshaa ka ant hoga hi nahi yeh aap maankar hi kyon chale hain? ya ki, ye kewal us pal ka chitr hai jo aapne kabhi jiya? Jo ho, bhavon ki utkatataa choo leti hai.
चाहने और होने में होती बड़ी ही दूरी
जतन किये भी कई चाहत, होती नहीं पूरी….
ek katu satya ki kam shabdon me safal abhivyakti!!
sir i selut you for you poeat
दिल छू लिया कहना अत्यंत अल्प होगा | इस रचना ने मेरे अस्तित्व को ही झकझोर दिया ! ऐसे नेक बन्दे को खुदा ज़िन्दगी की सारी खुशियाँ बख्शे यही दुआ है !