ललित कुमार द्वारा लिखित; 31 जनवरी 2007 को 3:00 सायं
एक ग़नुक (ग़ज़ल-नुमा-कविता)…
कल जाने क्या होगा, इस बेक़रारी में नए हैं
साथ में रहना, हम दुनिया तुम्हारी में नए हैं
यहाँ बस नाम, दौलत, शोहरत की कीमत है
बहुत देर से जाना, हम दुनियादारी में नए हैं
एक ग़रीब कुचला गया, आस्मां तो नहीं टूटा
देखते नहीं साहब, अपनी सवारी में नए हैं
आकर ख़ुशी की शक्ल में, प्यार दर्द ही देता है
ये नहीं जानते वो, जो दोस्ती-यारी में नए हैं
वक़्त-बेवक़्त जाने, क्यों भर आती हैं ये आँखें
पूछो मत हम तो, इस आबे-खारी में नए हैं
n to apna bana sakte n hi door ja sakte yahi duniaa hai
‘आकर ख़ुशी की शक्ल में, प्यार दर्द ही देता है’
सच है!
जो इस सच को नहीं जानते हैं, ईश्वर करे, यह सच कभी उनके समक्ष प्रगट न हो:)
‘यहाँ बस नाम, दौलत, शोहरत की कीमत है
बहुत देर से जाना, हम दुनियादारी में नए हैं’
दुनियादारी में नए हैं तभी तो विशिष्ट हैं…
ऐसे ही बने रहिये…
कुछ एक मुट्ठी भर लोग ऐसे भी होंगे जिनकी नज़रों में इन दुनियादारी के घटकों की कोई कीमत न होगी! है न?