मानवता आज बैठी है हारी

ललित कुमार द्वारा लिखित; 09 अक्तूबर 2003 को लिखित

यह कविता मैंने 09 अक्तूबर 2003 की सुबह का अखबार पढ़ने के बाद लिखी थी। अखबार में पहले ही पन्नें पर एक रुला देने वाली ख़बर छपी थी। दिल्ली के बुद्धा जयंती पार्क में सेना के चार जवानों ने मिलकर एक 17 वर्षिया कॉलेज जाने वाली लड़की का बलात्कार किया था। विडम्बना यह भी कि ये चारों लोग राष्ट्रपति भवन की सुरक्षा में तैनात थे! उस दिन सारा समय मैं एक सदमें की सी स्थिति में रहा।

भूले क्यों मानवता का अर्थ?
कुछ जो दूजों से अधिक समर्थ
पापी अट्टाहस करते घूम रहे,
सहमी हुई है हर सुकुमारी
मानवता आज बैठी है हारी

रिश्तों का मतलब रहा नहीं
नारी ने क्या-क्या सहा नहीं
असंख्य रूप धरे दुशासन,
करते है वस्त्रहरण की तैयारी
मानवता आज बैठी है हारी

सतयुग में यह आरम्भ हुआ
शिखर कलयुग में इसने छुआ
क्यों अत्याचार नारी पर होता?
है मन पर बोझ बड़ा ये भारी
मानवता आज बैठी है हारी

जग का आधार जिसे वेद मानते
फिर क्यों हम उसको तुच्छ जानते?
जीवन फूल उपजता जिससे,
जग में नारी ही तो वह क्यारी
मानवता आज बैठी है हारी

5 thoughts on “मानवता आज बैठी है हारी”

  1. ललित जी मानव में कभी भी  कोई दोष आ सकता है मानव पूर्ण नहीं है  लेकिन बुरा तो बुरा ही होता है जी लेकिन आपकी वेदना बिलकुल सही है जी 

  2. rakesh kumar anand

    यह कविता सिद्ध करती है की आज का समाज मानसिक रूप से बीमार है, और हमें आर्थिक विकाश के साथ साथ चारित्रिक विकाश पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है|

  3. hamesha aurat ko hi bali ka bakra kyu banna padta hai? tarikh 04/12/12 ke news paper me ek khabar padhne ko mila, jisame likha tha kishanganj (bihar) ke ek gram payanchayat ne abiwahit ladhakiyo ko mobile istemal na karane ka pharman jari kiya hai.

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