ललित कुमार द्वारा लिखित; 14 जनवरी 2009
“ओ पेड़ शृंखला” की एक और कविता। इस रचना में सूखे पेड़ की निश्चलता का वर्णन है। किस तरह यह अचल वृक्ष तमाम उम्र अपने चारों ओर होती गतिविधियों को देखता रहता है। गतिमान संसार में उसके करीब से तो लोग ग़ुज़रते हैं -लेकिन उसका अपना कोई नहीं होता।
ओ पेड़
मैं समझ सकता हूँ
तुम्हारी विवशता को
लेकिन बस कुछ हद तक
किसी का दर्द, किसी की विवशता
कोई दूसरा कहाँ आंक सकता है
लोग लगा सकते हैं बस अनुमान
गहरी हताशा भरे किसी के अंतर में
कोई दूसरा कहाँ झांक सकता है
धरती इतनी विशाल है लेकिन
जन्मते ही नियती ने
बस दो-चार गज़ माटी से
तुम्हें बांध दिया
तब से तुम बरसों-बरस
अपने सीमित क्षितिज को
यूं ही निहारने पर विवश हो
क्यूँ कर नहीं चल सकते तुम भी
बस यही विचारने को विवश को
पास खेलते बच्चों की गेंद
जब करीब आ गिरती है
तो तुम्हारे मन के पांव उठते हैं
कि तुम लपक कर गेंद उठाओ
और बच्चों की ओर उछाल दो
लेकिन मन के पांवों से
ना शरीर चलता है
और ना ही मन के हाथों से
गेंद उठती है
ज़मीन के भीतर गड़ी
अपनी जड़ों को तुम खींचते तो होंगे
पर आशा और विश्वास का बल
गति में परिवर्तित न होता होगा
धरती चाहे जितनी बड़ी हो
पर तुम्हारे लिये तो गज़ दो-चार
बस यही तुम्हारा है घर-बार
सूरज के निकलने से
सूरज के ढलने तक
जीवन के बनने से
जीवन के बिखरने तक
बस यही तुम्हारा है संसार
ये माटी जो है गज़ दो-चार
मैं समझ सकता हूँ
तुम्हारी एकाकी पीड़ा को
तुम किसी-से अपनेपन का
बंधन भी नहीं बांध सकते
विश्व तो गतिमय है
लोग आते हैं, तुमसे नाते बनाते हैं
फिर छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं
तुम इस निरन्तर चलती दुनिया में
उनके साथ, उनके जैसे नहीं चल पाते
तो वे भी तुम्हारे पास क्यूँ रुकें ?
बस यही सोच कर तुम
ख़ुद को समझाते हो
पर आखिर में तुम
अकेले ही रह जाते हो
हाँ मैं समझ सकता हूँ
ओ पेड़
ped ki peeda kavi ki peeda hai….
is gahrayi se… is nischalta se kavi ne mehsoos kiya hai ped ka dard… ki uski sahaj vani padhne wale ko bhaav vibhor kiye bina nahi rahti…. har pathak jadon se bandhe ped se bandh swayam ko kritarth samjhe aisi bhaavpurna ucchayiyon se baandh jati hai kavita!
yah rahi saath hai hamesha…
rishton ka tana bana indradhanushi rangon jaisa…
“oo ped shrinkhla” ki sundar kavita ke liya haardik subhkamnayen!
्पेड के माध्यम से आज जो हालात हैं उन्हे दर्शा दिया…………एक बुजुर्ग इन ही सब अवस्थाओं से ही तो गुजरता है और फिर एक दिन ठूँठ की मानिंद ठुकरा दिया जाता है।
I agree with Vandana's comment. This is becoming a great social problem.
मैं तो गजल सुना के अकेला खडा रहा, सब अपने-अपने चाहने वालों में खो गए।
ab kyaa kahoon kyon likh jaato wo bhee itnaa sundar jsis e main sahamat nahee hotaa
ललित जी! एक और सुन्दर भाव्पूर्ण कविता के लिये बधाई । इस बिम्ब को एकाकी जीवन की बेबसी के लिये कहा है और डक्यूमेंट्री शैली में कहा है एक और समधर्मा इसी विषय पर और इसी अधारबिन्दु पर है श्री ब्रजनाथ श्रीवास्तव की यह कविता देखिये —
पुराने
दिन कभी इस पेड़ के भी
थे जवानी के
बसंती किसलयों ने थे
दिए हंसकर मृदुल गहने
लजीली फूल-गंधों संग
हवाएं थीं लगी बहने
यहीं पर
खेलता था खेल सावन
धूप पानी के
सबेरे व्योम पॉखी
डाल पत्ती पर उतरते थे
दिशाओं में मधुर संगीत
के सरगम संवरते थे
यहीं पर
दीप जलते मंत्र पढ़ते
मॉ भवानी के
समय गुजरा कि दिन बदले
हवा बदली झरे पत्ते
हुई कंकाल देही पर
हवाओं के वही रस्ते
हुए बस
फूल फल तन पात्र अब
किस्से कहानी के
शुभकामनाओं सहित -मयंक
gehri vivashta jo ped se kahin vistrit ayam liye hue hai. bahut hi sunder tarike se peeda ka chitran kiya hai…………vo peeda jo sachmuch sab samjh nahi payenge kyunki mehsoos karna us vivashta ko………..asaan nahi…………
shubhkamnayen
bahut hi khoobsurat aur dil ko chu lene wali rachna