ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना

ललित कुमार द्वारा लिखित; 28 जनवरी 2007

एक पुरानी रचना…

ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना
सुनो ज़िन्दगी, मेरे साथ-साथ चलना

अब तो आओ तुम, और थाम लो मेरा हाथ
लम्बी अकेली राह मेरी है, दे दो अपना साथ
तुम बिन अर्थहीन अस्तित्व है मेरा
जिसका तुम सवेरा हो, ये जीवन ऐसी रात

रूठ जाओ तुम मुझसे हो ऐसा कोई पल ना
ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना

गिर पड़ता जब-जब लगती जीवन में ठोकर
ऐसे दुख में पीड़ा से, रह जाता हूँ मैं रोकर
तुम बिन इस पीड़ा को कब तक कहो सहूंगा
जी नहीं सकता मैं तुमको इस तरह से खोकर

यहाँ हर पल गिर-गिर पड़ता मुझे संभलना
ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना

जग की इस पहेली को मैं समझ नहीं पाया
हर प्रश्न का उत्तर कुछ और प्रश्न ले आया
तुम बिन इन सवालों का मैं उत्तर कैसे दूंगा
आड़ी-तिरछी राहों ने मुझको कैसे उलझाया

जीवन की पहेली का मुझे सूझे कोई हल ना
ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना

माना कि तुलना मेरी नहीं शिव से हो सकती
पर तुम हो मेरी प्राण, हो तुम ही मेरी शक्ति
कच्चे घरोंदे-सा है बिना तुम्हारे मेरा जीवन
ऐसे घर को गिरने में कोई देर नहीं लगती

बिना अगन संभव नहीं ज्योति का जलना
ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना

सुनो ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना
मेरे साथ-साथ चलना

5 thoughts on “ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना”

  1. माना कि तुलना मेरी नहीं शिव से हो सकती
    पर तुम हो मेरी प्राण, हो तुम ही मेरी शक्ति
    कच्चे घरोंदे-सा है बिना तुम्हारे मेरा जीवन
    ऐसे घर को गिरने में कोई देर नहीं लगतीबिना अगन संभव नहीं ज्योति का जलना
    ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलनाgood poem

  2. Lalit ji app kavita bahut achi hai app vicharo ko bahut khub roop diya hai good keep it up all d best

  3. Hi, Lalit ji , Very nice poem. bahut hi acchi abhivacakti h.  Best of luck ..go ahead……………………

  4. hello lalitji…….aapki kavita dil ko choo jati hai…..bas aap sada yunhi acchi kavita likhte rahe……god bless u !!!!!!!

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