आधा चांद

ललित कुमार द्वारा लिखित; 27 जुलाई 2010

क्या आप विश्चास करेंगे?
पॉलीथीन की पन्नियाँ बीनने वाली
उस फटेहाल स्त्री को
आज आधा चांद पड़ा मिल गया!
जी हाँ! यूं ही पड़ा मिल गया
उसे आधा चांद

फिर क्या था
उसने चांद उठाया
मैले-कुचैले आंचल में
जल्दी से उसे छुपाया
और घर की ओर चल पड़ी
जहाँ राह देखती थी उसकी
इक नन्हीं बिटिया खड़ी

आप पूछेंगे कि
भला धरती पर चांद कैसे आया?
हाँ, आप यही पूछेंगे
क्योंकि आपका पेट भरा है
जितना खाया, खाया
बाकि कर दिया ज़ाया
आपकी देहली के बाहर
गाय के लिये रखे
रात के बचे भोजन में
उस स्त्री ने आधा चांद पाया

ये बात और है कि
वह स्त्री उसे आधा चांद
और आप बासी रोटी कहते हैं!

18 thoughts on “आधा चांद”

  1. difference in circumstances so starkly creates difference in perceptions…….

    chaand ke tukde aur basi roti ke virodhabhas ko ukerti hui kavita!

  2. ये बात और है कि
    वह स्त्री उसे आधा चांद
    और आप बासी रोटी कहते हैं! bhout ache lalit ji

  3. रोटी…बासी रोटी..और आधा चांद….!!!

    मानवीय संवेदनाओं को कचोटती है ये कविता..

    साधुवाद स्वीकार करें.

  4. Alka sarwat mishra

    is आपकी इस कविता ने तो रुला दिया

    उफ़

    क्या तस्वीर हो गयी है मेरे देश की

    प्लेटफार्म पर गेहूँ सड़े और ……………..

  5. kash hum log, aur sari dunia is tarah soch paate to duniya ki shakl hi kuch aur hoti. shayad itni badhali na hoti.

  6. halanki chaand aur roti vaali upma puraani hai, iska treatment bilkul naya hai Ye kavita bhaut takleef deti hai, preshaan karti hai, issi liye bhaut acchi laggi..Engill

  7. प्रिय भाई ललित जी

    आपने उपमान पृथक अर्थों और समर्थ अर्थों में लिया है । वो कविता अच्छी होती है जिसमें अपने समय की कहानी लिखी होती है । चाँद वैसे तो सौंदर्योत्पादकता के लिये होता है लेकिन भूखे को रोटी जैसा ही दिखता है । यहाँ आपने स्वयं को सामाजिक संवेदना के साथ समस्वर किया है इसलिये कविता डाक्यूमेंट्री नहीं हुयी और आप अनुभूति को जगाने और संप्रेषित करने में सफल रहे है ।

    प्रतीकों को नया रंग अज्ञेय जी ने देना आरम्भ किया था —

    “डोलती कलगी अकेली बाजरे की ,

    अब तुम्हें मै ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका

    इसलिये नहीं कहता क्योंकि ये उपमान मैले हो गये हैं…”

    आपने चाँद को एक और आयाम दिया इसके लिये -बधाई और शुभकामनायें

  8. Thank you Lalitji for enhancing our knowledge. The story behind this photograph is very interesting and new to me :] and now I can connect this photo with one of my favorite quote by Einstein

    “A photograph never grows old. You and I change, people change all through the months and years but a photograph always remains the same. How nice to look at a photograph of mother or father taken many years ago. You see them as you remember them. But as people live on, they change completely. That is why I think a photograph can be kind.”

    Albert Einstein

  9. I always wonder why Einstein stuck out his tongue and found this website. Thank you for the information about the photograph. This actually helped me get more information for my project. 🙂

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