ललित कुमार द्वारा लिखित;
मैं चाहता हूँ
मिट जाऊँ मैं
और मेरा निशां
बाकी ना रहेना किसी के मन में
ना सोच में
किसी तरह के
इतिहास में नहीं
समय कभी लाया था
इस धरा पर मुझे
इसका प्रमाण तो क्या
कोई अनुमान भी न रहे
विलीन हो जाऊँ
इस प्रकृति में
अस्तित्व मेरा
ताकि ना रहे
मिट जाऊँ मैं और
मेरा निशां
बाकी ना रहे
मैं चाहता हूँ…
बेहद ही खूबसूरत कविता। पढ़कर बहुत-बहुत-बहुत अच्छा लगा। 🙂
निराशाजनक अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा है यह ! इन विचारों को प्रेषित करना संवेदनशील दिलों पर गहरा एवं स्थायी असर डाल सकता है !
एक अच्छे संवेदनशील दिल से निकली एक बेकार रचना …..शुभकामनायें आपको !
दर्द जब गीत बन जाते हैं फिर कोई चाह शेष नहीं रह जाती …
kyon ?
मेरे विचार में यह एक निराशाजनक अभिव्यक्ति नहीं अपितु यह रचना एक समर्पित मन के दर्शन कराती है।
यदि थोड़ा सा गहराई में जायें तो यह रचना गीता के श्लोक
“कर्मन्ये वाधिकारस्थे मा फलेषु कदाचन”
को ही प्रस्तुत कर रही है।
“ना किसी के मन मेंना सोच में”शायद ललितजी स्वयं दुविधा में हैं ! दोस्त बनाने में रूचि है किन्तु किसी की सोच या मन में नहीं रहना चाह्ते! कैसे संभव है? विरोधाभास !आप अपने बारे में सोचने और लिखने के लिये पूर्णरूपेण स्व्तंत्र हैं किन्तु हमारी यही विनती है कि ऎसी निराशाजनक कविताएँ सार्वजनिक ना करें, निराशा का संचार ना करें और सदा खुश रहें ।
e kavita manusya ko apni trasna par vijay ko darsati hai.adbhut.
kabhi-kabhi ensaan aisa bhi sochta hai………..
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इस रचना में निराशा कहीं भी नहीं है। रचना का आशय यह है मैं अपना कार्य इस धरा पर पूरा करना चाहता हूँ। लोगों के जीवन को बेहतर बनाना चाहता हूँ लेकिन ये नहीं चाहता कि मेरे जाने के बाद किसी को भी मेरा नाम याद रहे। “मरने के बाद लोग हमें याद करेंगे” यह एक बहुत बड़ा लोभ होता है -मैं इस लोभ से उबरना चाहता हूँ। इस रचना का यही आशय है। आपको रचना खराब लगी इसका मुझे अफ़सोस है।
{“मरने के बाद लोग हमें याद करेंगे” यह एक बहुत बड़ा लोभ होता है -मैं इस लोभ से उबरना चाहता हूँ।}
Hats off to this thought and this poetry….
बहुत सुन्दर और गहन भाव लिए रचना…..
शुभकामनाएं.
अनु