ललित कुमार द्वारा लिखित; 07 नवम्बर 2011
इस ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) के कुछ शे’र उन दोस्तों के लिए लिखे हैं जो कान के इतने कच्चे होते हैं कि आँख मूंद कर, दिमाग़ और समझ के सारे दरवाज़े बंद करके किसी की भी बात का भरोसा कर लेते हैं। कुछ सोचते नही, परखते नहीं। ऐसे ही दोस्तों के प्रति आगाह करते हुए बड़े-बुज़ुर्गों ने कहा है कि “मूर्ख दोस्त से समझदार दुश्मन बेहतर होता है।”
दिल में हमने, जिनको रक्खा, दिल के सच्चे जान के
दोस्त वो ही, अपने निकले, बहुत कच्चे कान के
बूढ़ा-बूढ़ी, खड़े अचंभित, ज़हर घर में कहाँ से आया
साँप थे वे, पाला जिनको, भोले बच्चे जान के
वार तेरा हम, सह गए के, दोस्त हमने तुझे कहा था
तू जो बदले, तो बदल पर, हम हैं पक्के आन के
थी अमीरी, है अब फ़कीरी, दोनों में कोई फ़र्क कहाँ
चल छोड़ अब तू, रख भी ले, ये गेहूं-मक्के दान के
अक्लमंद हो, दुश्मन भी तो, मूर्ख दोस्त से बेहतर है
पाया सबक तो, रेत से हमनें, हीरे रक्खे छान के
अक्लमंद हो, दुश्मन भी तो, मूर्ख दोस्त से बेहतर है
जब सबक पाया, तो रेत से, हीरे रक्खे छान के….bahut hi sundar prerak prasang ke madhayam se saarthak prastuti..
एक-एक शब्द अनुभव के रस से भीगा हुआ है.. अमीरी और फ़कीरी के फर्क को बखूबी
कह डाला आपने.. उम्मीद है अब भविष्य में हम से ग़लती नहीं होगी.. दोस्त
पहिचानने में
कहां ग़रीबी,कहां फ़कीरी फ़र्क नहीं देखी जाती है
मन मिल जाय,दिल मिल जाये तो दोस्ती हो जाती है.
सुन्दर बाल कविता एक सुन्दर सीख देती हुई रचना |
वजह जो भी हो…शेर उम्दा निकल आये!!!
अनुभवों से युक्त गूढ़ रचना।
moorkh mitr se toh akalmand dushman bhala