ललित कुमार द्वारा लिखित; 30 सितम्बर 2007
कई वर्ष पहले लिखी एक ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता)…
ओ बंजारे दिल आओ चलें अब घर अपने
घर से दूरी है लगी दिखाने असर अपने
पीछे पड़ी रह जाएगी वो ख़ाक कहेगी
तय हमनें किस तरह किए सफ़र अपने
रहते ग़र वो साथ तो तारे भी क्या दूर थे
पा ही लेते, हमें पर छोड़ गये थे पर अपने
इश्के-साहिल है उसे मिटना तो ही होगा
उठते ही पल गिन लेती है हर लहर अपने
ये तन्हाई भी क्या-क्या खेल दिखाती है
ज़िन्दगी जा रही, रुके हुए हैं पहर अपने
याद है हम भी कभी ख़ुशहाल हुआ करते थे
फिर ये कि उसने बुलाया मुझे शहर अपने
पूछा नहीं किसी ने जब था हाले-दिल कहना
अब कोई पूछे तो हिलते नहीं अधर अपने
ग़नुक मेरे दर्द को तुम सजा सजा कहना
सजाने दो इस दुनिया को शेरो-बहर अपने
पूछा नहीं किसी ने जब था हाले-दिल कहना
अब कोई पूछे तो हिलते नहीं अधर अपने
जिन्हें समझना है वो आपके बिना कहे भी आपके दिल की बात समझ लेंगे….
बहुत सुन्दर लिखा है…;
कई बार पढ़ा… और पढ़ ही रहे हैं!
आँखें तुम्हारी भी छलकने को हैं … अब घर चलें
उर्दू और हिंदी शब्दों का अच्छा तालमेल है| ललितजी, इसका ऑडियो भी मौजूद है क्या?
उर्दू और हिंदी शब्दों का अच्छा तालमेल है| ललितजी, इसका ऑडियो भी मौजूद है क्या?
mujhe aapki kavitaye bahunt hi aachhi lagti hai.
yaddi aap chaahen to mujhe bhi marg darshan dene ki kripa kare
kyonki mai bhi chhoti -moti kavita likh leta hun.
mai bhi internet ke madhyam se apani kavita logon tak pahunchana chaahata hun
iske liye apani ray dene ki kripa kare
आपकी कलम से निकली एक और बेहतरीन गनुक। ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयीं –
इश्के-साहिल है उसे मिटना तो ही होगा
उठते ही पल गिन लेती लहर लहर अपने
ये तन्हाई भी क्या-क्या खेल दिखाती है
ज़िन्दगी जा रही पर रुके हुए पहर अपने