ललित कुमार द्वारा लिखित; 30 सितम्बर 2011
मुझे याद नहीं आता कि पिछली बार मैंने ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) कब लिखने की कोशिश की थी। शायद काफ़ी अर्सा हो गया… ख़ैर आज जो लिखा वो ये है…
हाले-शहर होता वही जो होता हाल फूलों का
कभी ध्यान से देखा करो कमाल फूलों का
दोनों रखे हैं सामने ज़रा सोच-समझ के बोल
सुर्ख़ खंजर अच्छा कि गुच्छा लाल फूलों का
बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का
याँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थे
अजब बेरंग-सा गुज़रा है अब के साल फूलों का
दो गुल ही काफ़ी थे मगर लालच की हद कहाँ
तोड़ क्यूँ उसने लिया मुकम्मल डाल फूलों का
wah wah bus wah wah —-aapne to mujhe purane shayron ki yaad dila di ,,,blessings blessings and more blessings
wah wah ;blessings
बहुत ही सुंदर ग़नुक !
“बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का”
वाह-वाह !
फिर छिड़ी रात बात फूलों की… याद आ गई…। बहुत खूबसूरत लिखा। नाज़ुक एहसास. मुबारक़।
aap ki is ganuk par yahi kahunga ke ye mat dekho kaun keh raha hai ye dekho kya keh raha hai is me thoda sa izafa karne ko dil chah raha hai aaj :
ye mat dekho kaun keh raha hai
ye mat dekho kis bhasha me keh raha hai
ye mat dekho bina grammar ke keh raha hai
balke ye dekho
ke wo kya keh raha hai
sundar bhav sundar varnan gambheer chintan
aadil rasheed
ये जाल फूलों कायाँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थेकुछ बेरंग-सा गुज़रा है अबके साल फूलों का…waah
Bade dino baad apne dil Bagh-Bagh kar diya. Jiyoji!!!
सुंदर गनुक। आनंद आ गया।
Lalit ji vaise to padh kar khusi mili par do sabd
जंगजू aur
कफ़स ka matlab nahi jaan saka ho sake to batane ka kast kare.