गुच्छा लाल फूलों का

ललित कुमार द्वारा लिखित; 30 सितम्बर 2011

मुझे याद नहीं आता कि पिछली बार मैंने ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) कब लिखने की कोशिश की थी। शायद काफ़ी अर्सा हो गया… ख़ैर आज जो लिखा वो ये है…

हाले-शहर होता वही जो होता हाल फूलों का
कभी ध्यान से देखा करो कमाल फूलों का

दोनों रखे हैं सामने ज़रा सोच-समझ के बोल
सुर्ख़ खंजर अच्छा कि गुच्छा लाल फूलों का

बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का

याँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थे
अजब बेरंग-सा गुज़रा है अब के साल फूलों का

दो गुल ही काफ़ी थे मगर लालच की हद कहाँ
तोड़ क्यूँ उसने लिया मुकम्मल डाल फूलों का

9 thoughts on “गुच्छा लाल फूलों का”

  1. बहुत ही सुंदर ग़नुक !

    “बड़े जंगजू हुए दिल को मगर नाज़ुक ही रक्खा
    आखिर कफ़स में लाया हमें ये जाल फूलों का”
    वाह-वाह !

  2. Aadil Rasheed1967

    aap ki is ganuk par yahi kahunga ke ye mat dekho kaun keh raha hai ye dekho kya keh raha hai is me thoda sa izafa karne ko dil chah raha hai aaj : 
    ye mat dekho kaun keh raha hai 
    ye mat dekho kis bhasha me keh raha hai 
    ye mat dekho bina grammar ke keh raha hai
    balke ye dekho

    ke wo kya keh raha hai 
    sundar bhav sundar varnan gambheer chintan
                                     aadil rasheed
                                   

  3. ये जाल फूलों कायाँ बहारे सजती रही अहले-चमन ही गायब थेकुछ बेरंग-सा गुज़रा है अबके साल फूलों का…waah

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