जज़्बा-ओ-अहसास

ललित कुमार द्वारा लिखित; 10 सितम्बर 2011

जिस्म में हरक़त ज़रूरी है
के जीने की चाह अभी पूरी है
पर रूह तो क़तरा-क़तरा होकर
चटके सपनों की दरारों से
रिस गई है
रीत गई है

हर शख़्स लफ़्ज़े-मोहब्बत तो तुम्हे दे देता है
अहसासे-मोहब्बत को मगर पास ही रख लेता है
लफ़्ज़ो की तो इंतिहाँ होती नहीं, बोलते रहिए
नाज़ुकी जज़्बो की बयां क्या कीजे, जोड़ते रहिए

जानते हो दोस्त
बदन के ज़ख्म तो फिर भी भर सकते हैं
घायल जज़्बे हैं बेदर्द, अपने घाव हरे रखते हैं

फिर भी
जज़्बा-ओ-अहसास में ताकत तो नई लानी होगी
किसी तरह से हो नई बस्ती तो बसानी होगी
सवाल ये है कि फिर से भरोसा कैसे काबिज़ हो
किस जगह तलाशूँ हमसफ़र जो मेरे वाजिब हो

वो पल मुड़ के लौटे नहीं
अलग राह थे जो गए
इक हसीं सपने को टूटे
आज…
करीब दो बरस हो गए
उससे पहले के सपने से
मैं नौ बरस में उबरा था
साल-दर-साल यूँ बीत रहे हैं
चंद लम्हों की कहानी है
ज़िन्दगी सौ बरस की तो नहीं

ख़ैर, जो होगा वो देखा जाएगा
रूह के क़तरो को तो समेट ही लूँ
नए सपने की कोई कोंपल
शायद कहीं दिख जाए
इन क़तरों से सीचूँगा
फिर से इक नया सपना मैं

7 thoughts on “जज़्बा-ओ-अहसास”

  1. “नए सपने की कोई कोंपल
    शायद कहीं दिख जाए
    इन क़तरों से सीचूंगा
    फिर से इक नया सपना मैं”उस कोंपल, उस सपने को सजाये रखिये ललितजी ! जीवन बड़ा विचित्र है ! कब, कौन, कहाँ अचानक मिल जाए कोई नहीं जानता | कब कोई अजनबी सबसे प्यारा, सबसे अज़ीज़ लगने लगे कुछ नहीं कहा जा सकता |
    खूबसूरत धोखे भी मिलते हैं, दिल भी टूटता है | उन क़तरों को सहेज आगे बढ़ जाने का नाम ही ज़िन्दगी है | सभी एहसास, सभी लोग तो एक जैसे नहीं होते ! आपको अपने वाजिब कोई ज़रूर मिलेगी | कब दिल पर दस्तक दे दे किसे मालूम ? अपने ज़ज्बों में विश्वास बनाए रखिये !
    अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति !

  2. हर शख़्स लफ़्ज़े-मोहब्बत तो तुम्हे दे देता है

    अहसासे-मोहब्बत को मगर पास ही रख लेता है

    लफ़्ज़ो की तो इंतिहाँ होती नहीं, बोलते रहिए

    नाज़ुकी जज़्बो की बयां क्या कीजे, जोड़ते रहिए
    सचमुच बहुत सुन्दर लिखी गयी है ,निराशाओं की बंज़र ज़मीनों पर खिलती आशाओं की कपोलों की तरह …..

  3. ख़ैर, जो होगा वो देखा जाएगारूह के क़तरो को तो समेट ही लूंनए सपने की कोई कोंपलशायद कहीं दिख जाएइन क़तरों से सीचूंगाफिर से इक नया सपना मैं… और विशवास है उन सपनों में फल लगेंगे हकीकत के 

  4. “किसी तरह से हो नई बस्ती तो बसानी होगी”

    आपकी सबसे बेहतरीन कविता ललित जी

  5. फिर भी
    जज़्बा-ओ-अहसास में ताकत तो नई लानी होगी
    किसी तरह से हो नई बस्ती तो बसानी होगी
    सवाल ये है कि फिर से भरोसा कैसे काबिज़ हो
    किस जगह तलाशूं हमसफ़र जो मेरे वाजिब हो…………..दिल के दर्द को खूबसूरती से बयाँ करती खूबसूरत रचना | 

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