जी सकने का आधार

ललित कुमार द्वारा लिखित; 18 अगस्त 2011

एक ग़नुक…

जी सकने का अब मुझको, कोई तो आधार चाहिए
मेरा हो मुझे अपना माने, छोटा-सा संसार चाहिए

टूट चुकी है आस अब, कोई प्रेम-समंदर पाने की
जी सकूं बस इतनी-सी, प्यार की बौछार चाहिए

टकराया हूँ मैं वक़्त की, बिजलियों से तूफ़ानो से
घेर मुझे जो साथ दे सके, अब ऐसी दीवार चाहिए

ऐसा मैंने मांग लिया क्या, जो तुम मुझसे रूठ गयी
क्या चाहिये मुझे ज़िन्दगी, बस थोड़ा-सा प्यार चाहिए

अच्छा किया मज़ाक खुशी ने, जब आने का किया वादा
हैं ज़िन्दगी में चार दिन, उसको दिन हज़ार चाहिए

11 thoughts on “जी सकने का आधार”

  1. टूट चुकी है आस अब, कोई प्रेम-समंदर पाने की

    जी सकूं बस इतनी-सी, प्यार की बौछार चाहिए

    पढ़कर खुशी मिली। सुंदर गनुक।

    Just a suggestion. I have seen the images tiled vertically on all your poem posts. Instead of tiling the
    images vertically a single image will look more beautiful (size doesn’t matter). Just a view point of mine.

  2. After being showered with so much love and affection on you birthday, you are still longing for प्यार की बौछार Lalitji? 

  3. Yashoda Agrawal

    अच्छा किया मज़ाक खुशी ने, जब आने का किया वादा

    हैं ज़िन्दगी में चार दिन, उसको दिन हज़ार चाहिए
    वाह ललित जी वाह, दो पंक्तिय़ां गालिब जी की………
    तुम न आओगे तो मरने की है सौ तदबीरें,
    मौत कुछ तुम तो नहीं हो की बुला न सकूं.
    – मिर्ज़ा “ग़ालिब”

  4. जी सकने का अब मुझको, कोई तो आधार चाहिएमेरा हो मुझे अपना माने, छोटा-सा संसार चाहिए… इसी छोटे संसार की ललक जाने कितने मन की चाह होती है…. बहुत ही अच्छी रचना 

  5. cant imagine such a sad baby to see . punish or give him(warren anderson) a nice lesson in his life.

  6. दीवार, आधार, प्यार, और स्नेह की बौछार सब मिले सुदीप्त, उन्नत व उज्जवल जीवन को…!
    सारी बातें कितनी सुन्दरता से रखती है यह रचना!

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top