ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

ललित कुमार द्वारा लिखित, 14 जनवरी 2009

यह कविता एक सूख चुके पेड़ की मनोदशा का वर्णन करती है। अकेले पड़ चुके इस पेड़ को अब कोई नहीं पूछता -इसका महत्व तब तक ही था जब तक कि यह हरा-भरा था। इस स्थिति में भी पेड़ डटे रहना चाहता है। परन्तु इस तरह के महत्त्वहीन जीवन का क्या लाभ?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?
आंधी ललचाई सी आँखें लिये
तुम्हारा शिकार करना चाहती है
धूप, जो कभी दोस्त थी
आज चाहती है तुम्हें देना जला
तुम्हारा तन, ये तना
अब तो खोखला हो चला

क्या तुम उन पंछियों की सोचते हो?
जिन्होनें बसाये थे तुम पर
अपने घर और सपनें नये
आंधी ने ज़रा तुम्हें हिलाया
वे साथ तुम्हारा छोड़ गये
कहीं सोचते तो नहीं तुम
उसके बारे में
वो गिलहरीथी जो
एक इस संसार सारे में
बहुत खुश होते थे तुम
देख उसकी अठखेलियाँ
सोचते थे कि यही जीवन है
सुंदर सा, प्यारा सा
पर तुम भूल गये थे कि
तुम तो केवल एक पेड़ हो
चल नहीं सकते
देखो दुनिया, पंछी और गिलहरी
सब आगे दौड़ गये हैं
बोलो अब वे कहाँ हैं?
है कौन इस वीराने में
तुम्हारे साथ?
अकेले जीवन अब लगता तुमको
काली एक अंधियारी रात

हाँ हाँ मालूम है
एक सूखी, जली, मुरझाई हुई पत्ती
जिसे तुम उम्मीद कहते हो
अब भी तुमसे जुड़ी हुई है
पर क्या एक मुरझाई हुई
उम्मीद के सहारे
इतना दर्द सहना ठीक है?
क्या पा लोगे कुछ और पल
यूँ ही इस ज़मीं पर खडे़ हुए?
ना तुम में छाया है
फल फूल तो छोडो़
ईंधन भी ना बन सके
ऐसी तुम्हारी काया है

सुनो ओ पेड़, तुम गिर जाओ
खुश हो लेने दो आंधी को
अपनी थकी हुई जड़ों को आराम दो
तुम्हे जला संतोष मिलेगा
धूप को भी कुछ काम दो
गिर कर तुम जो खाली करोगे
उस जगह उगेंगे नये पौधे
कड़वे फलों और पैने काँटों का भी
है इस जग में महत्व बड़ा
तुम पूरी तरह उपयोगहीन
क्यूँ चाहते हो रहना खड़ा?
यूँ खड़े-खड़े भला
तुम किसके हो काम आते?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?

12 thoughts on “ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?”

  1. Kyoon ki, is ped ne abhi mujh jaise kai doobte huoon ka sahara ban na hai……….

    Pattiyan jal kar raakh hui tou kaya,
    tinke tou sahara ban hi sakte hain!

    “This world needs you”

  2. पेड़ों से तो मेरा पुराना नाता है ,तो आप अतिक्रमण करने लगे
    अच्छा ये कविता तो पुराने पन्नों से है ,ठीक है कोई बात नहीं ,हो सकता है तब पेड़ों से बस मेरी हाय हेलो रही हो ,खैर…..
    वैसे इस मुरझाई ,जली सड़ी,पत्ती रूपी उम्मीद का कोई जवाब नहीं
    इस के सहारे तो हम आज भी जीवित हैं और रहेंगे भी
    कविता अच्छी सी लगी

  3. सूख कर भी खड़ा है बरसों कैसा दरख़्त है,
    कई हरे पेड़ों मगर घुटने टेक दिए।

  4. कोई भी पेड़ जीवन भर सूखा नहीं रहता पतझड़ में अगर खाली हो भी जाए तो मौसम बदलते ही हरा भरा होता है …. उस पर नए पंछी भी आते हैं, और वैसे भी पेड़ जब सूख जाए तो भी कई घरों में रोशनी करता है, उसका जीवन हमेशा दूसरों के लिए ही होता है, जब हरा होता है तो वो छाया देता है पत्थर देने वालों को फल और फूल से लाद कर वापिस भेजता है मगर हम इंसान पेड़ की तरह नहीं है हो भी नहीं सकते …. हम स्वार्थी है अपनी ख़ुशी से ज़यादा कुछ नहीं सूझता ही नहीं ….हम पतझड़ में हमारी देखभाल करने वाले को बहार में भूल जाते हैं …. पत्थर के बदले फल देना तो खैर दूर की बात है…… काश हम सभी पेड़ से जीवन का मूल समझ और सीख पाते

  5. Rashmi Aggarwal

    very touching (ओ पेड़, तुम गिर क्यों नहीं जाते?)
    हरे -हरे पत्ते जिनसे सजती हैं टहनियां
    फिर ये ही पत्ते सूख कर -टूट कर गिर जाते हैं
    टूट कर पत्तों यूँ गिरना
    है महज प्रक्रिया या षड़यंत्र रचती हैं टहनियां
    कदाचित ;
    इन सूखे निर्जीव पत्तों से नहीं चाहतीं वे दिखना बेजान
    और फिर ,’ ये ‘ तोड़े जाते हैं ,अलग किये जाते हैं
    या किंचित ;
    लाचार पत्ते स्वयं ही अलग हो जाते हैं
    क्योंकि अब ये कोमल नहीं ,
    सूखने लगे हैं इनके किनारे
    ये हल्के -फुल्के से वृद्ध पत्ते
    बोझ बन गए हैं युवा टहनियों पर……….”

  6. धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    आप की कविता उन पेड़ों पर सटीक बैठती है जो खेलों की एशोसिएन के प्रेसिडेंट बने बैठे हैं पिछले १५-२० सालों से और हटने का नाम तक लिया जाय तो प्रधानमंत्री के पास गुहार लगाने पहुँच जाते हैं।

  7. hriday drawit hua…dard ki sunder abhivyakti…shabdon ka safalta se samayojan hua hai…rachna apni baat keh paane me safal rahi hai…aur isi me ek kavi ki kavyaatamkta aur kavya shaili ki safalta jhalakti hai…

    yunhi likhte rahiye….maa saraswati ki aap par bharpoor kripa bani rahi…

  8. सुनो ओ पेड़, तुम गिर जाओ
    खुश हो लेने दो आंधी को
    …… heartiest salute to the confidence that is expressed poetically here……
    to yield place to new that's the essence running throughout the poem…. wonderful poetry among the many more wonderful poetries by the poet, who is an institution in himself!!!!!!!!!!!!

    @lalit …..
    dont dismiss my words as hollow praise:)

  9. bahut sunder kriti, par dard ka sagar samete hue………… jo ped se kahin door le jati hai ek bebasi ka ehsaas karati…………..

    shubhkamnayen

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