तुम क्षितिज बनो तो बनो

ललित कुमार द्वारा लिखित; 6 जनवरी 2005
तुम [tippy title=”क्षितिज”]जहाँ धरती और आकाश मिलते हैं[/tippy] बनो तो बनो
मैं तो एक पथिक हूँ
तुम्हारी ओर बढते जाना
यही है मेरा कर्म
तुम्हे पा जाना
या नहीं पा पाना
पर पाने की आस में
चलते जाना है मेरा धर्म

तुम [tippy title=”अगन”]आग, अग्नि[/tippy] बनो तो बनो
मैं तो एक पतंगा हूँ
ज्योति ओर खिंचते आना
यही है मेरा समर्पण
आनंद लौ के साथ उठाना
या इस लौ में ही जल जाना
मृत्यु की नहीं चिन्ता मुझको
किया है मैनें जीवन अर्पण

तुम [tippy title=”मृगजल”]मृगतृष्णा[/tippy] बनो तो बनो
मैं तो एक प्यासा हूँ
तुम्हें देख प्रसन्न हो जाना
यही है स्वभाव मेरा
प्रेम का अमृत पी पाना
या प्यासे ही रह जाना
पर अमृत की चाह हमेशा
चाहे लगा रहे जग का फेरा

तुम क्षितिज बनो तो बनो!

10 thoughts on “तुम क्षितिज बनो तो बनो”

  1. पर अमृत की चाह हमेशा
    चाहे लगा रहे जग का फेरा
    chaah hi jijivisha ka doosra naam hai!
    shubhkamnayen!!!

  2. तुम मृगजल बनो तो बनो
    मैं तो एक प्यासा हूँ
    तुम्हें देख प्रसन्न हो जाना
    यही है स्वभाव मेरा
    प्रेम का अमृत पी पाना
    या प्यासे ही रह जाना
    पर अमृत की चाह हमेशा
    चाहे लगा रहे जग का फेरा

    तुम क्षितिज बनो तो बनो!
    बेहद उम्दा भावाव्यक्ति।

  3. Sushilashivran

    I am awestruck Lalitji !! I have become a great fan of yours! Your every poem is awesome!! Keep kindling the love for poetry. ” saraa jahaan mera hoga ab” outstanding!!

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