ललित कुमार द्वारा लिखित
“ओ पेड़” नामक शृंखला जारी है। एक और कड़ी प्रस्तुत है…
ओ पेड़
तुम्हारे हौंसले को
कोई सराहेगा नहींआस्मां में चमकती
इन बिजलियों का दिल तंग है
और फिर जला देने की आदत
रहती इनके संग है
ये पहले जलाती हैं
फिर खिलखिलाती हैं
तुम खुले आकाश तले
बंजर पर खड़े अकेले
बादल बूंद ना एक बरसाते हैं
बस साथ बिजलियां लाते हैं
बिजलियां अपना दिल बहलाती हैं
और तुम्हारा दिल दहलाती हैं
पर फिर भी तुम तने हुए
साहस की मूरत बने हुए
बस यूं ही खड़े रहते हो
लेकिन कहो तो
वहाँ दूर से जो
सड़क निकलती है
जिस पर दुनिया चलती है
क्या उनमें कोई हमदर्द है?
क्या कभी किसी ने पूछा
कैसा तुम्हारा दुख-दर्द है
प्यार की धूप खिली रहे
चाहे सारे जहाँ में
तुम्हारे लिये तो मौसम
सदा सर्वदा सर्द है
जानता हूँ तुम मन ही मन
अपने दर्द से गीत बुनते हो
पर इन गीतों को साथ तुम्हारे
कोई गाएगा नहीं
ओ पेड़
तुम्हारे हौंसले को
कोई सराहेगा नहीं
apki kavita bahot pasand aai. ped ka dard apne bakhubi samza hai.
sunder abhivyakti!
तुम्हारे लिये तो मौसमसदा सर्वदा सर्द हैजानता हूँ तुम मन ही मनअपने दर्द से गीत बुनते होपर इन गीतों को साथ तुम्हारेकोई गाएगा नहीं
ओ पेड़तुम्हारे हौंसले कोकोई सराहेगा नहीं
सराहने वालों की तो कोई कमी नहीं | ये जीवन है कवि महोदय ! प्रतिपल नए रंग, नए सपने लेकर आता है | इस पेड़ को साहस की मूर्ति बन खड़े रहना ही होगा | कोई पथिक कभी तो इसकी छांह तले, इसके सरमाये में सुकून तलाशेगा