ओ पेड़… सकारात्मक सोचो!

ललित कुमार द्वारा लिखित; 23 जनवरी 2009

“ओ पेड़” नामक शृंखला जारी है। एक और कड़ी प्रस्तुत है।

ओ पेड़
लोग कहते हैं
सकारात्मक सोचो!

चलो आज सोचते हैं
बचे तुम्हारे उपयोग कितने

बच्चे आधे घिसे चॉक से
तुम्हारे सूखे तने पर
टेढी मेढ़ी रेखाओं से
बनाते हैं विकेट
कितना आनंद देता है उन्हें
ये खेल जो कहलाता क्रिकेट!
पर जब कोई आउट होता है
तो कठोर गेंद भी तुम्हें लगती है
और झल्लाहट में बल्लेबाज का
बल्ला भी तुम्ही पर गिरता है
ज़रा सोचो तो क्यूं नहीं विकेट बनाते
ये बच्चें उन हरित-फलित वृक्षों पर?
ऐसा इसलिये कि उन वृक्षों का माली है
जिसे उन वृक्षों से बहुत है प्यार
और वो करता उनकी रखवाली है
हाँ, तुमसे तो किसी को प्यार नहीं
पर क्यूं अपना दिल जलाते हो !
क्या हुआ जो चोट बहुत तुम खाते हो
इन बच्चों का दिल बहलाने को
आखिर में काम तुम्हीं तो आते हो !

सिर पर सूखी टहनियों का
बड़ा-सा गठ्ठर लिये
मैली-सी सूती धोती लपेटे
वो महिला जो प्रतिदिन
दूर उस पगडंडी पर से जाती है
रोज़ वह सोचा करती है
जल्द ही तुम्हें थोड़ा-थोड़ा करके
वह अपने सिर पर उठा लेगी
तुम्हारा भी गठ्ठर बना लेगी !
तुम उसके चूल्हे में जलोगे
उसके परिवार को पालोगे
हाँ लेकिन ये ज़रूर है कि
कृतज्ञता का महीन-सा भाव भी
उस महिला के ज़हन में नहीं आएगा
पर इस से क्या होता है ?
किसी और के लिये जलना, ओ पेड़
कहाँ हर किसी के बस का होता है!

और याद है एक दिन वो आया था
साथ में कैमरा लाया था
कितनी सारी तस्वीरें
उसने तुम्हारी खींची थी !
मैं तो हँस पड़ता हूँ
जब याद आता है तुम्हारा
थोड़ा अकड़ जाना
ज़रा-सा मुस्कुराना
फ़ोटो के लिये पोज़ बनाना !
कितने खुश हुए थे तुम
उस दिन रहे तुम खुशी में गुम
तुम्हे लगा उस व्यक्ति को
तुमसे प्यार है
तभी तो उसने तुम्हारे संग
इतना समय बिताया
इतनी तस्वीरें खींची
लेकिन…
तुम्हें क्या मालूम
तुम्हारी वो तस्वीरें
अब किसी पत्रिका में
“जीवन की व्यथा”
“मृत्यु-सा सूनापन”
“ज़िन्दगी की जटिलता”
इत्यादि शीर्षकों के साथ
आधुनिक दर्शन कॉलम में
छप चुकी होंगी
उस व्यक्ति को रुपये मिल गये होंगे
और वो तुम्हें कब का भूल गया होगा
पर खै़र तुम दुख ना करो
तुम्हारा यूं त्याग दिया जाना
बातें हैं छोटी-छोटी
कितने हैं जो इस दुनिया में
कुछ लिये बिना देते हैं
दूसरों को रोज़ी-रोटी !

मुझे पता है तुम जानते हो
मैनें तुम पर कसे व्यंग हैं
पर उनको उत्तर कैसे देता
खुशी जिनका जीवन-अंग है
जिन्हें दुख नहीं तोड़ता
वे ही कहते हैं “सकारात्मक सोचो”
दुख-दर्द की अतिशयता को
प्रकृति को, परिस्थितियों को
समय की गतिविधियों को
वे नहीं समझ सकते
जिनका जीवन ही बीता हो
खुशियों में हँसते-हँसते

मैं तो तुम्हे जानता हूँ ओ पेड़
तुम्हारे दर्द को तुम्हारी विवशता को
मैं समझता हूँ
तो “सकारात्मक सोचो” का भाषण
मैं तुम्हें कैसे दे सकता हूँ?

मैं तुमसे कुछ नहीं कह सकता
ओ पेड़
बस इतना कि “मैं समझता हूँ”

5 thoughts on “ओ पेड़… सकारात्मक सोचो!”

  1. मैं तुमसे कुछ नहीं कह सकता

    ओ पेड़

    बस इतना कि “मैं समझता हूँ”

    वाह!सुन्दर श्रेष्ठ रचना!

    साथ खड़े होना,

    साथ रोना

    उपदेशक मात्र न होकर-

    दर्द का…… सहभागी होना

    ये दुर्लभ सी सच्चाई है!

    कविहृदय में

    पेड़ ने-

    अपनी सी पीड़ा पाई है

    तभी तो आश्वस्त है

    आज वह

    कि, कोई है …

    जो उसे समझता है!

    जिसकी वाणी में

    गूढता का बोझ नहीं

    जो स्वयं ही

    मूर्त “सहजता” है!!

  2. वे ही कहते हैं “सकारात्मक सोचो”
    दुख-दर्द की अतिशयता को
    प्रकृति को, परिस्थितियों को
    समय की गतिविधियों को
    वे नहीं समझ सकते
    जिनका जीवन ही बीता हो
    खुशियों में हँसते-हँसते

    dard ki gehri anubhuti……..jis par beetti vohi janta hai……….sakaratmak soch…khushiyon ki urwar bhoomi ya aas ki bhoomi mein jad leti hai………… par is 'sookhe ped' ka mahtwa phir bhi hai ye jata diya koi mane na mane……………….

    shubhkamnayen

  3. shayed aaj rum ne samjhaa diyaa hame ki ham kuch nahee samjhate
    mujhe aisaa nahee lagataa

    kintu kavitaa bahut achhe se likhee gayee hai bahut sashakt bhee hai

    vivaad bhee kitnaa ashay hotaa hai jis paas sashakt abhivyakti hai wo jeet jataa hai

    sach kee nahee shabd kee jeet hotee hai aaj tumahre shabd jeet gaye kash mujh men itna gyan hotaa ki mere shabd jeet jaate

    par socho….

    ped kitnaa sashakt hai jis ne mujh ko haraa diyaa
    apneee bebasee kaa har kissaa samjhaa diyaa

    aur kitnee takat chaahiye tum ko o mere ped
    kamzor ho tum magar mujh ko itnaa rulaa diyaa

    kis men itnaa takat tum ko zaraa hilaa sake
    tum ne khud ko mara au tum ne hee giraa diyaa

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