ललित कुमार द्वारा लिखित; 12 जुलाई 2007
ये अंगूठी वापस नहीं लौटी
हक़ीक़त बनने की सीमा तक जाकर
एक सपना लौट आया है
मेरे मन
तुम क्यूं दुखी होते हो
इस अंगूठी में सजी है
तुम्हारे सपने की छवि
ये तो मानो, है अंधेरे में रवि!
अपने मुकाम तक पँहुचती
तो सपना सच हो जाता!
सब कितना अच्छा हो जाता!
ख़ैर, खु़द को तसल्ली दे लो
बस यूं सोचो कि शायद
ये अंगूठी ही हक़ीक़त है
बाकि जो है सपने है
और सपनों की माया है
ये अंगूठी वापस नहीं लौटी
हक़ीक़त होने की सीमा तक जाकर
एक सपना लौट आया है
स्वप्न और सच्चाई के बीच
जो सूक्ष्म सी लकीर है…!
उस सीमा की तलाश व्यर्थ,
खोने-पाने के गणित से परे-
जब मन ही फ़कीर है…!!
sundar rachna …
तुम्हारे सपने की छवि
ये तो मानो, है अंधेरे में रवि!
sundar pankti!
ये अंगूठी वापस नहीं लौटी
हक़ीक़त होने की सीमा तक जाकर
एक सपना लौट आया है
Sapne aur haqikat ke beech ki doori sirf kavi hai naap sakta hai. Bahut Khoob!
मेरे मन
तुम क्यूं दुखी होते हो
इस अंगूठी में सजी है
तुम्हारे सपने की छवि
ये तो मानो, है अंधेरे में रवि!
bahut achhi rachna, par kavi yaad rakho ravi andhere mein adhik din na rahega aur jab chamkega to poorntaya alokit hokar…………
shubhkamnayen
kya baat hai
lalti ji , mai apse yeh jana chahta hu kiu yeh kavita zindgi ki kaun si mahtvkansha ko samjhti hai…????
par is ka ras bahut meetha hai….
अनकही, अनसुनी-सी चाहतें, अधूरी-सी कुछ हसरतें कुछ मान-मन्नौवल, कुछ शिकवे हैं; कुछ मन में गिले
हर आस हो जाए पूरी तो जीने का मकसद; मज़ा क्या है
बिन पतझड़ बसंत; बिन दुःख सुख का अहसास क्या है मर्मस्पर्शी रचना !
sapne hi hakeekat bannate hai..apna sapna apna hota hai apne pass hi ayega na..phir se use raah dikhao…bhaut ahsaas bhari rachna