ओ पेड़… तुम्हारा मीत खो गया है

ललित कुमार द्वारा लिखित; 26 सितम्बर 2010

एक सूखे जर्जर पेड़ के जीवन-वर्णन का सिलसिला जारी है। “ओ पेड़” नामक इस शृंखला की एक और कड़ी मैनें कल ही लिखी है। आप माने या ना माने -प्रेम एक ऐसी सरिता है जो आपको किसी भी प्राणी के अंतर में बहती हुई मिल सकती है। एक पेड़ के अंतर में भी! पेड़ को मालूम है कि किसी का प्रेम पाने का उसे कोई अधिकार नहीं है लेकिन किसी के प्यार को अपने मन में तो वो भी बसा सकता है।

ओ पेड़
तुम्हारा मीत खो गया है…

वो पतली-सी रेखा
जिसे क्षितिज कहते हैं
उस पर तुम्हारा गुस्सा है
जबकि वो तो तुम्हारे जीवन का
अटूट-सा एक हिस्सा है
पर मैं जानता हूँ
क्यों तुम्हे क्षितिज पर रोष है
तुम्हारी वो मीत
इसी क्षितिज के पार कहीं
तुमसे दूर रहती है

तुम उसकी राह की मंज़िल ना थे
और मुकाम भी नहीं
तुम तो फ़क़त एक पेड़ थे
बैठ जिसकी छांह तले
सुस्ताई थी वो दो घड़ी
उसके कोमल पैरों ने
तुम्हारी नर्म पत्तियों के
बिछौने पर आराम पाया
कुछ रस भरे फलों को भी
उसने होठों से लगाया
और तुम नादान मान बैठे
तुम जहां में सबसे अच्छे हो
वरना वो तुम्हारे पास ही क्यूं रुकती!

लेकिन तुम देख ही नहीं पाए
उसकी आंखों में तो
ऊँचाईयों की चाह थी
जो तुम्हारी सबसे ऊँची शाखा से
आगे भी बेपनाह थी
फिर सामने उसके
क्षितिज की ओर जाती एक राह थी

विदा तक कहे बिना एक दिन
वो चल दी क्षितिज की ओर
तुमने पुकार कर कहा था
“सुनो, तुम मत जाओ ना
अपनी शाखाओं पर बिठाकर
मैं तुम्हें ऊँचाई दूंगा”

जवाब में उसने कहा
“तुमसे तो ऊँचे पहाड़ हैं
और उनसे भी ऊँचे सितारे
मुझे तो वहीं जाना है
उन्हीं का प्यार पाना है”

तुम उदास हो गए
फिर भी तुमने कहा था
“रुक जाओ, पहाड़ पथरीले हैं
और सितारे एक छलावा
तुम ऊँचाई तो पा जाओगी
पर प्यार कहाँ से लाओगी?”

इस पर उसने कहा था
“मुझे तो उनका प्यार चाहिए
जो ऊँचे हैं, महान हैं
वही हैं मेरे प्यारे
पर्वत और सितारे!”

तुम उसे पुकारते रह गए
वो क्षितिज के पार खो गई
समय से पहले ही तुम्हारी
ज़िन्दगी की शाम हो गई

अब जब तुम सूख चुके हो
तो पूछते हैं तमाशबीन
तुम्हारी विशालता के बावजूद
कारण इतना जल्द सूख जाने का
कभी हंसते हुए हवा पूछती है
कारण उस मीत के रूठ जाने का
तुम चुप-से रहते हुए कह देते हो
“क्षितिज ने मीत को बहका दिया”
कुछ इसी तरह से तुम
अपने उस रिश्ते को संभाल लेते हो
दोष तो सब जानते हैं किसका था
तुम दोष क्षितिज पर डाल देते हो

अब किस-किस को समझाओगे
किसने किसे पुकारा था
और किसने प्यार नकारा था
मैं जानता हूँ चिर प्रतीक्षा
वो तुम्हारे मन में बो गया है
हाँ, ओ पेड़
तुम्हारा मीत खो गया है…

9 thoughts on “ओ पेड़… तुम्हारा मीत खो गया है”

  1. aapne kaha “पेड़ को मालूम है कि किसी का प्रेम पाने का उसे कोई अधिकार नहीं है लेकिन किसी के प्यार को अपने मन में तो वो भी बसा सकता है”
    bilkul sahi kaha apne aur ped ko ye bhi malum hai ki pyaar paane ka nahi dene ka naam bhi hota hai…isliye jab tak wo hara bhara raha. Usne duniya ko, aane jaane walon ko apne prem se sarobaar kiya…usne panchhiyon ko need banane diya apni ghani pattiyon ke beech-o-beech, apni mazboot shakhaon par…usne fal diye aur un falon me beej bhi the jo naa jaane kitne aur paudhe khilayenge..usne hawa ko tar-o-taza kiya…uski jaden aaj bhi mitti me ander tak dabi hain..jo is dharti ko banjar banne se bachchati hain…taaki ye pyaar ki ganga nirantar behti rahe….
    bahut kuchh sikhata hai apka ye ped humen….aise ped ko jo kewal dena janta hai lena nahi…aise safal jeevan ko mera naman…

  2. Buzurgoon se suna hai ki ” Kan-Kan main Ram baste hain”…. Is Vishaal ped ne bhi Ahilyaa ko mukt kar diya.

    Woh anjaan tou khoya raha apne kshitij aur Meet ki udhed-bun main, par uski paras Jadoon ne apne jeevan path main aane wale har ek patthar ko sona bana diya. Ek din jab uski charan dhooli liye jadoon ki shiraayen Ahilyaa par padi tou anjaane main hi us jogan ko jeevan-daan milgaya.

    Woh anjaan tou khoya raha…..na jaane hi jeevan gathayen rach gaya!

  3. दोष तो सब जानते हैं किसका था
    तुम दोष क्षितिज पर डाल देते हो

    dil ko bahut gehre choo gai aur aankhein nam kar gai. bahut achhi kriti hai.

    shubhkamnayen

  4. चिर प्रतीक्षा में लीन, हृदय के उदगार!
    पेड़ अद्भुत दानी है, करता ही रहा उपकार!

  5. आपने जिस प्रतीकात्मकता से पेड़ों के सहारे प्रेम की जो अद्भुत व्याख्या की है सुन्दर है… ये दो पंक्ति ….
    तुम ऊँचाई तो पा जाओगी
    पर प्यार कहाँ से लाओगी?”
    बहुत ख़ूबसूरती से छंदों में बांधकर प्रेम की अप्रतिम भावनायों को सहज प्रश्न और उत्तर के जरिये ढूंढा गया है …..
    आपका ब्लॉग पढता रहा हूँ लेकिन ज्यादा जानना अनुपमा के सहारे ही हुआ …..कविता कोष भी सचमुच एक अद्भुत कृत्य है जिसके लिए आपकी जितनी भी प्रसंशा की जाये कम है
    आभार
    राकेश पाठक

  6. Navin C. Chaturvedi

    ललित भाई कविता का यह भाग ज़्यादा मर्मस्पर्शी लगा………. बधाई स्वीकारें|
    विदा तक कहे बिना एक दिन
    वो चल दी क्षितिज की ओर
    तुमने पुकार कर कहा था
    “सुनो, तुम मत जाओ ना
    अपनी शाखाओं पर बिठाकर
    मैं तुम्हें ऊँचाई दूंगा”

    जवाब में उसने कहा
    “तुमसे तो ऊँचे पहाड़ हैं
    और उनसे भी ऊँचे सितारे
    मुझे तो वहीं जाना है
    उन्हीं का प्यार पाना है”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top