ललित कुमार द्वारा लिखित; 12 सितम्बर 2010
ग़ज़लों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए एक और ग़ज़ल पेशे-नज़र है। यह पहली ग़ज़ल है जिसमें मैनें अपने तख़ल्लुस “ध्रुव” का इस्तेमाल किया है।
प्यार की हक़ीक़त को वक्त परखता है
झूठ पे पड़ा पर्दा धीरे-धीरे सरकता है
रोया सिसका था मेरे गले लग के वो
ज्यों सीने में आस्मां के चाँद धड़कता है
तेरे दरिया-ए-मुहब्ब्त में घुलने के लिये
मेरे दिल का क़िनारा बेज़ोर दरकता है
जहाँ तेरे ख़त बरसों संभाल के रक्खे
मेरे घर का कोना दिन-रात महकता है
मिजाज़े-हुस्न है ठंडा पर भूल से भी
ना छू इसे देना कि ये अंगार दहकता है
शहरे-संगो-ज़ख्म में देखो तो ज़रा कौन
कली ग़ुलाब की लिये बेज़ार भटकता है
यूं तो कह देते हैं हम दिल पे जो बीती
होटों पे तेरा नाम ही हर बार अटकता है
“ध्रुव” को ग़ज़ल कहे इक अर्सा हुआ फ़ना
गुले-नरगिस है कभी-कभार चटकता है
achhi bani hai.KAVITAKOSH ko maine assichauraha.blospot.com par laya hai, kabhi assi chaurahe par aaiye.
जहाँ तेरे ख़त बरसों संभाल के रक्खे
मेरे घर का कोना दिन-रात महकता है
wah! wah! aur sirf wah!!
“Dhruv” saahab chha gaye aap to!
प्यार की हक़ीक़त को वक्त परखता है
….a stark truth dealt so beautifully here…..
“dhruv” … dhruvtare sa uccha sthan prapt karne ka adhikari hai srijan ke sansar mein!!!
subhkamnayen:)
जहाँ तेरे ख़त बरसों संभाल के रक्खे
मेरे घर का कोना दिन-रात महकता है
behatreen
धार बढ़ती जा रही है आप की तलवार में,
जोर बढ़ता जा रहा है आप के हर वार में।
आदरणीय ललित जी
आज आपकी ग़ज़ल “प्यार की हक़ीक़त” पढी
आपका मिजाज़ शायराना है और ख़याल खूबसूरत लेकिन ग़ज़ल की कुछ बन्दिशें भी होती है । बहुत बार हमारी मेहनत पर तनक़ीद्कार पानी फेर देते है क्योंकि ग़ज़ल बहर में नहीं होती –मेरा निवेदन है इसका ध्यान करते हुये कहें तो और भी खूबसूरत कहेंगे मिसाल के तौर पर
प्यार की हक़ीक़त को वक्त परखता है
झूठ पे पड़ा पर्दा धीरे-धीरे सरकता है
रोया सिसका था मेरे गले लग के वो
ज्यों सीने में आस्मां के चाँद धड़कता है
अब ज़रा इसको यूँ कहें –
प्यार की हक़ीक़त को वक्त भी परखता है
झूठ पे पड़ा पर्दा एक दिन सरकता है
या
प्यार की हक़ीक़त को वक्त जब परखता है
झूठ पे पड़ा पर्दा आख़िरश सरकता है
और –
वो मेरे गले लगकर इस तरह सिसकता है
आसमाँ के सीने में चाँद ज्यों धड़कता है
मैं पिछले 25 बरसों से ग़ज़ल का मुसाफिर हूँ ।मेरी बात को अन्यथा नहीं लेना है क्योंकि मै जिन स्थितियों से दो चार हो चुका हूँ उनको ध्यान में रखते हुये आपको लिख रहा हूँ ताकि आप उस कटु अनुभव से न गुज़रें । यदि कोई बात ग़लत हो गयी हो तो आपसे मुआफी चाहता हूँ – दो शेर आपको नज़्र –
इसी खातिर तो उसकी आरती हमने उतारी है
ग़ज़ल भी मां है और उसकी भी शेरों की सवारी है
मुहब्बत धर्म है हम शायरों का दिल पुजारी है
अभी फ़िरकापरस्तों पे हमारी नस्ल भारी है
सितारे, फूल, जुगनू , चांद , सूरज साथ हैं हरदम.
कोई सरहद नहीं ऐसी अजब दुनिया हमारी है–
सादर और सप्रेम
मयंक अवस्थी
payar ki hakikat waqt ke sath judha rehata hai. Aor jo parakhata hai wahi sabse achha hai.
जहाँ तेरे ख़त बरसों संभाल के रक्खे
मेरे घर का कोना दिन-रात महकता है
खूबसूरत पंक्तियां..बहुत खूब
प्यार की हक़ीक़त को वक्त परखता है
झूठ पे पड़ा पर्दा धीरे-धीरे सरकता है
lalit bhayee
kya kahne , kya kahne,
bahut achi ghazal, lajbaab matla 🙂
जहाँ तेरे ख़त बरसों संभाल के रक्खे
मेरे घर का कोना दिन-रात महकता है
यूं तो कह देते हैं हम दिल पे जो बीती
होटों पे तेरा नाम ही हर बार अटकता है
प्यार की हक़ीक़त को वक्त परखता हैझूठ पे पड़ा पर्दा धीरे-धीरे सरकता हैदुरुस्त फरमाया आपने | झूठ के पैर नहीं होते | सच तो उजागर होता ही है |रोया सिसका था मेरे गले लग के वो
ज्यों सीने में आस्मां के चाँद धड़कता हैबहुत-बहुत सुंदर !