ललित कुमार द्वारा लिखित; 01 अक्तुबर 2003
यह रचना मैनें आज से सात वर्ष पूर्व जन्माष्टमी के दिन ही लिखी थी। इन वर्षों में मैनें इसे कुछ मित्रों को पढने के लिए तो दिया लेकिन कभी भी सार्वजनिक नहीं किया। ऐसा मैनें क्यों किया यह मैं नहीं जानता -लेकिन अब यह रचना सार्वजनिक कर रहा हूँ। यह रचना सात वर्ष पुरानी है और इन वर्षों में मैनें बहुत कुछ सीखा है।
वह तो जगदीश थे
समस्त चराचर के स्वामी
हवा के चलने से
पत्ते के हिलने तक सब कुछ
था उनके अधिकार में
विश्वपति तो थे ही वो
मनुष्य लोक में भी
नरपति द्वारकाधीश कहलाए
जिसमें हो ब्रहमांड निहित
कौन थाह उसकी पाए?
वे रुक्मणी को हर लाएँ
या संग राधिका रास रचाएँ
उस असीम को सीमित कर दे
मैं भी जानूँ वो सीमा क्या है?
वरना कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम में अंतर क्या है?
शक्ति जिनके वाम विराजे
उन्हे प्रेम फिर क्यों ना साजे?
उनके हाथ सुदर्शन चक्र
मेरे हाथ में बैसाखी
कृष्ण प्रेम था ललित बहुत
पर ललित प्रेम है कृष्ण नहीं
अनछुए वर्ण श्वेत की भांति
ललित प्रेम भी उज्जवल है
किन्तु मैं ठहरा
जीवन सागर में गोते खाते
निरीह प्राणियों से भी
निरीहतर प्राणी
मैं ललित वे तो कृष्ण हैं
मैं जीव वे तो परमात्मा हैं
वे ना जाने यह जीवन का आवर्तन क्या है
वरना कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम में अंतर क्या है?
very very nice lalit….thanks for sharing
is kavita ki rachna jis janmashtmi ko hui… us din se aaj ki pawan janmashtmi tak kavi lamba safar tay kiya hai…. jahaan the wahaan se nischit kahin aage hain……… isliye aaj awashya hi is aabhas se abhibhoot honge ki krishn prem ki bhaktimay dhaara mein leen hone ke baad lalit prem ka lalitya aur bhi awarnaniye ho jayega….
phir koi bhed na hoga!
bhakti ke prasad se man pran bhaav-vibhor hon!
janmashtmi ki hardik subhkamnayen….
कृष्ण प्रेम था ललित बहुत
पर ललित प्रेम है कृष्ण नहीं-
समर्थ पंक्तियाँ हैं ।
ललित जी ,
कृष्ण जैविक चेतना की संभाव्यता की पराकाष्ठा का दूसरा नाम है।ऐसी कोई कला नहीं जिसका चरम उनमे नहीं मिलता ।हम भी अनंत संभावनायें ले कर जन्मते है लेकिन उनमें से कुछ ही विकसित हो पाती हैं ।ज्ञान की खोज का अर्थ ही यही है कि हम मनुष्य होने का अर्थ जान ले। क़्रष्ण के सभी कर्म मानवीय कोटि के होने के बावजूद ईश्वरीय इसलिये थे क्योंकि वे समष्टि के तत्सामयिक् जड़्त्व
का तिरोहन करने के निमित्त बने ।
चाहे वो कालिय , पूतना , बकासुर , जरासन्ध , कालयवन , कंस ,इत्यादि आसुरी शक्तियो का नाश हो , चाहे घोर आंगिरस का साँख्य भाग्वत सन्दर्भों मे विलय करने की बात हो और चाहे सर्वकालीन उपनिषद -सार गीता का दर्शन हो यहाँ , जीवन दर्शन अपने चरम अर्थों मे मिलता है । भीष्म -प्रतिज्ञा वैयक्तिक अभिमान है , सार्वभौम हितो के लिये नहीं है ,द्रोंणाचार्य पुत्र- प्रेम हेतु राजपुत्रों को को शिक्षा देते है और ब्राह्मण्त्व भूल गये है , जयद्रथ उद्दंद्ता की पराकाष्ठा है इसलिये इनके अंत की कथाओं में क़्रष्ण की भूमिका मानवीय पृवृत्तियों के सर्वथा निकट है ।कुछ मैने भी इधर एक तवील ग़ज़ल कही है दो शेर –
मेरे किरदार को यूँ तो ज़माना कृष्ण कहता है
मगर इतिहास का सबसे सुनहला दिन रहा हूँ मै
सुदर्शन चक्र रखता हूँ बज़ाहिर मुस्कुराता हूँ
मगर शिशुपाल तेरी गालियाँ भी गिन रहा हूँ मैं- मयंक 28.08.2010
खुशी की बात यह है कि यह किरदार आपको आकर्षित करता है –
“मैं भी जानूँ वो सीमा क्या है?”-.वरना कृष्ण प्रेम और ललित प्रेम में अंतर क्या है?”-
अनछुए वर्ण श्वेत की भांति ललित प्रेम भी उज्जवल है-ये दो पंक्तियाँ जिज्ञासा और विश्वास की परिधि पर खड़ी है पिछले 7 वर्षो का अनुभव क्या कहता है – सोचिये ।
“उनके हाथ में सुदर्शन चक्र और मेरे हाथ में बैसाखी.”
इससे उत्कृष्ट, पीर को दर्पण दिखाता हुआ वाक्यांश हो ही नहीं सकता.
इस आर्त और कातर संवेदित मन की पुकार से आज वासुदेव भी द्रवित हुए हैं.
पीड़ा की परिधि में चक्रवात सा घुमा गया, पीड़ा की अन्तिमता तक भाव छू चुके हैं , समाधान भी यहीं छुपा है.
तुम्हारी लेखनी को नमन करती हूँ.
पीर परे करें नाथ, स्तवन करती हूँ.
antar keval itna hai ki ek atom hai to duusra galaxy… element is the same only magninude differs…
tum ko sab pata hai mere man men kyaa hai is kavitaa ko padhane ke baad
'mere haath men baisakhi ' waali pankti acchi nahin laggi.
Tere haath men to kalam hai bandhu…likhta ja!
Thank you Lalitji for sharing such a Master-piece…….to me, the reasons of making this “picture perfect” are:-
Dress color of both the objects are perfectly contrast
Comfort level/Perfect balance
Beauty of body language (Hand support given by the sailor and slightly raised leg of Nurse)
Distance/Frame from the buildings
Last but not the least… Joy of Victory in the arms of youth!
Good-going dear!
ofcourse, a big irony brought forth !
nice one!!
जीवन का आवर्तन श्रीकृष्ण द्वारा दी हुई प्राण शक्ति को
श्री कृष्ण रूपी चैतन्य में समाहित कर देने की प्रक्रिया ही पूर्ण आवर्तन है ललित भाई
इश्वर सम्पूर्ण ऊंकार स्वरूप विग्रह हैं वही श्रीकृष्ण हैं और हम अंश …
आपमें जो ” ललित प्रेम भी उज्जवल है ” वही श्रीकृष्ण हैं !
इस आत्म यात्रा के हम सभी (हरेक आत्मा ) ,
सहयात्री हैं ..
चरैवेति … चरैवेति
स स्नेह आशिष सहित,
– लावण्या
उस असीम को सीमित कर देमैं भी जानूँ वो सीमा क्या है?प्रेम की शक्ति समझने की जिज्ञासा !! प्रेम की थाह कौन जान पाया है ? इसके अनेक रूप हैं – कृष्ण – राधा का रूप , कृष्ण-रुक्मिणी का रूप , कृष्ण – सुदामा का रूप और सबसे अलौकिक कृष्ण – यशोदा के प्रेम का रूप ! प्रेम में समर्पण, सत्यता उसे दिव्यता प्रदान करती है |किन्तु मैं ठहराजीवन सागर में गोते खातेनिरीह प्राणियों से भीनिरीहतर प्राणीये पंक्तियाँ मुझे कतई नहीं भाई | जिसके सर पर माँ सरस्वती ने अपना वरदहस्त रख दिया हो वह मनुष्य “निरीह्तर” कैसे हो सकता है ? शारीरिक बल से मेधा अधिक शक्तिशाली है और तलवार से कलम कहीं अधिक सशक्त है |
अपने लिए असहायता और लाचारी दर्शाने वाले शब्दों का प्रयोग ना करें, आपसे विनती है| अन्यथा मुझे आपकी रचना बेहद पसंद आई |
गहरे भाव। आत्म मंथन व्यक्त करती सुन्दर रचना।