ललित कुमार द्वारा लिखित; 28 फ़रवरी 2008
एक और कल्पना…
तुम कल्पना साकार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो
फ़सल भरे खेतों के पार
हो उड़ती चिड़ियों की चहकार
ग्रीष्म उषा की ठंडी बयार
सावन बूंदो की बौछार
हो खिली सर्दी की धूप सुहानी
मधु-ऋतु का सिंगार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो
कर्म, वाणी और मन में
सुमन हो शूलों के इस वन में
आस्था प्रेम की तुम आशा हो
पूर्ण सौन्दर्य की परिभाषा हो
जीवन के सूने मंदिर में
तुम ईश का सत्कार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो
जीवन का शुभ शगुन हो
मीठी-सी कोई धुन हो
हर पल की तुम हो मनमीता
करती जीवन-वीणा संगीता
मुझ-सा कहाँ तुम्हे पाएगा
तुम खुशियों का संसार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो
किनारे संग नदिया है रहती
कली मधुप से यही है कहती
जीवन रंगो से भर जाता
जब साथ कोई है साथी आता
किन्तु हमेशा जो रही अनुत्तरित
तुम मेरे मन की पुकार लगती हो
तुम कल्पना साकार लगती हो
नभ का धरा को प्यार लगती हो
Bahut-Bahut-Bahut sundar, Kavita hai……bilkul apki kalpana ki tareh!
I really wish apko apki kalpana jaldi mile……………..
anuttarit pukar ko atishighra uttar mile…
kavi ke aagan mein kalpana saakar khile…
prarthana hamari swikar ho!
haasil nabh ko dhara ka pyaar ho!!
subhkamnayen…
पहली बार इतनी चहचहाती कविता सुनने और पढ़ने को मिली
बहुत बहुत आभार
इस खिलखिलाती कविता के लिए
जन्मदिवस की अनगिन मंगलकामनाएं
शुभेच्छाएँ
अंतरतम उज्जवल हो
पृथ्वी कहती धैर्य न छोडो कितना ही हो सर पर भार
नभ कहता है फैलो इतना ,ढक लो तुम सारा संसार
बहुत जोहता द्वार बटोही, अंतर्मन की मधुर गुहार,
प्रकृति बहिर कैसे हो पाई, सुनी नहीं अब तक मनुहार.
जीवन के सूने मंदिर में प्यार करेगा कब सत्कार?
मन प्रांगण में एक बार तो, मधुर कल्पना हो साकार.
bhaut achchi prem me dubi rachna