ललित कुमार द्वारा लिखित, 10 दिसम्बर जून 2005
कुछ आखिरी किरणें बची हैं, उनको लुटा रहा हूँ मैं
सारा दिन जलने के बाद, अब ढलने जा रहा हूँ मैं
है ज़िन्दगी की शाम पर, एहसान तुम्हारा पंछियों
खुशियां तुम्हारी देख कर, मुस्कुरा रहा हूँ मैं
खत्म हो जाने से मेरे, दुनिया तो खत्म होती नहीं
चांद सितारे, हाथ तुम्हारे, सौंपे जा रहा हूँ मैं
ज़िन्दगी में कर ना पाया, कुछ भी तुम्हारे लिए मगर
जाते हुए संसार तुम्हारा, रंग कर जा रहा हूँ मैं
कुछ आखिरी किरणें बची हैं, उनको लुटा रहा हूँ मैं
सूरज और तुम्हारे बीच कुछ और समानताएं …मेरी नज़र से…
तुम सूरज हो ,
किरणे जिसकी ,
धुंध को चीरती ,
अन्धकार से छनती
फैलाएं अपनी आभा…
तुम प्रणीत हो
उजाला कर राह दिखाते हो
अपने प्रेम की गर्माहट से
सर्द अरमानो को
सजीव सबल बनाते हो
अँधेरा हो घना जब हद से ज्यादा
तुम सब रौशन कर जाते हो
निर्जीव निष्प्राण दिलों में
जीने की चाह जगाते हो
आकाश में इन्द्रधनुष जो आता है
वो भी तो रंग तुम्ही से पता है
सर्द शुष्क मौसम के बाद
बसंत भी तुम्ही लाते हो
बनजर बेजान सूखी धरती में
लाखों अंकुर खिला जाते हो
तभी तो कहती हूँ ….
कि तुम सूरज हो ..!
सूरज भी आप
चाँद भी आप
रौशनी और शीतलता के
सारे प्रतिमान भी आप
यूँ ही प्रेरित करते रहें धरा को
सूरज उग आये, आँगन खुशियों से भरा हो!!!
kya khub kahi aapne…