जीवन फूलों की सेज नहीं

ललित कुमार द्वारा लिखित, 12 अक्तूबर 2012

एक नई कविता। यह ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) नहीं है क्योंकि इसमें मतला अनुपस्थित है…

कैसे सपना उतरे आँखों में
जब नींद ही किरचें बोती है

जीवन फूलों की सेज नहीं
काँटो की कठिन चुनौती है

तम की ख़ातिर पास मेरे
मुठ्ठी भर ये ज्योती है

तार-तार तर दामन यूँ ही
बरखा भी क्यूँ भिगोती है

जहाँ कहीं से गुज़रुँगा मैं
वो खड़ी वहीं पर होती है

जिसे देख के मैं लिखता हूँ
पिए चांदनी वो सोती है

12 thoughts on “जीवन फूलों की सेज नहीं”

  1. कुछ सपनों की सेज सजती और कुछ सजोती है ……

  2. yashoda agrawal

    आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 17/10/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

  3. PRATUL VASISTHA

    जिसे देख के मैं लिखता हूँ
    पिए चांदनी वो सोती है
    @ लाजवाब ….. ऐसे रूपक बहुत कम देखने को मिलते हैं।

    ‘पिए चांदनी वो सोती है।’ इस पद ने ऐसा बाँधा कि छूट नहीं पा रहा हूँ।
    🙂 इसे कहते हैं सात्विक शृंगार की अभिव्यक्ति।

  4. “तम की खातिर पास मेरे

    मुठ्ठी भर बस ज्योती है”

    ….और वही मुट्ठी भर ज्योति राह रौशन किये हुए है!

  5. कायर को ही दिक्कत होती है |
    जो पौरुष होते है
    वे कठिन परिस्थिति में भी
    अपना व्यक्तित्व निखारते है|

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top