ललित कुमार द्वारा लिखित, 1 अगस्त 2004
जीवन कर्म प्रधान है और जीवन जीने का शायद सबसे उत्तम तरीका कर्मयोगी हो जाना है। कर्तव्य पूर्ण करने के बाद मिलने वाली आत्मिक संतुष्टि को ही अपना पारितोषिक मानना चाहिए…
कर्तव्य-निष्ठा से तूने, यह स्वप्न भी साकार किया
जीवन-पथ का यह मोड़ भी, तूने अविचल पार किया
मुड़ कर न देख तूने, कितना महत् है काम किया
सोच नहीं कि कितना थोड़ा, तूने है आराम किया
मत विचार कर अब आगे, इसका कैसा फल होगा
सोच तुझे अब क्या करना, आने वाले कल होगा
एक राह ख़त्म होती है, तो दूजी राह हम पाते हैं
यूँ ही जुड़ कर असंख्य रास्ते, जीवन-पथ बनाते हैं
बस कर्तव्य किये जा, यही तो है गीता में घोषित
यह कार्य किये की संतुष्टि ही, तेरा पारितोषिक
“संतुष्टि ही तेरा पारितोषिक “- बहुत सुंदर.
“पग से कंकर चुन-२ कर, औरों की राह बनाता चल
तू दीपक बन, घनी रात में, सबको राह दिखाता चल”…
जो दूसरों के प्रेरणाश्रोत बनते हैं, उनकी राहों का प्रेरक ईश्वर बन जाता है…
bahut sundr satya !!
kya khub likha he lalit ji ,ek raha khtm hoti he to duji rah hm pate he
kya khub likha hai apne