मेरी कलम

ललित कुमार द्वारा लिखित, 25 जुलाई 2012

बहुत दिन से मैंने कुछ नहीं लिखा… ज़िद थी कि इस बार लिखूँगा तो केवल ख़ुशी में लिपटे शब्द… पर ऐसा हो न सका… मैं ये भी नहीं कह सकता कि मुझे नहीं मालूम क्यों मेरी कलम ख़ुशनुमाई छोड़कर अंधेरी ऊबड़-खाबड़ राहों पर चलने लगती है… मैं ये नहीं कह सकता; क्योंकि जवाब मैं जानता हूँ…

आज अपनी क़लम को मैंने
बहुत सख़्त ताकीद की थी
बड़े दिनों बाद तुम्हें उठाया है
तो हुस्नो-माह की बातें लिखना
ख़ुशनुमा दिन, उगते सूरज
चांदनी रात की बातें लिखना
जब चलो तो चलना केवल
मुहब्बत-ओ-वफ़ा की गलियों में
कल्पना के रस में डूब-डूब
हर्फ़ों के निशां बनाना कुछ ऐसे
जैसे कोई कविता लिखी हुई हो

मेरी हिदायत-ओ-ताक़ीद पर
कलम बस दो ही कदम चली
और फिर वही हुआ जो होता है
मेरी कोशिशों से मुँह मोड़कर
ख़ुशनुमा रास्तों को छोड़कर
कलम एक पगडंडी पर उतरी
दर्द के आवारा ग़ुबारों के बीच
दु:ख से सहमी-सी शाम में
अकेलेपन की कंटीली झाड़ियों से
घायल हो, अपने ही लहू में डूब-डूब
कलम आज फिर इक ग़मज़दा
ख़ामोश अफ़साना लिखने लगी है
जो कविता तो शायद नहीं है

7 thoughts on “मेरी कलम”

  1. jayant sharma 'jay'

    ललित जी ,बहुत ही उम्दा कविता है….आपको साधुवाद….ऐसे ही लिखते रहिये…

  2. भूल जाइए पुरानी बातों को… अब उन पुरानी बातों यादों में रखा ही क्या है?
    शेर मत बनिए… चूहा बन कर पुरानी ग़मज़दा यादों को कुतर डालिए और फिर सिलाई बन कर एक नया स्वेटर बुनिए और पहनिए….

  3. कलम तो हमेशा अपने मन की ही करती है और शायद ठीक ही करती है…
    कितनी सुन्दर कविता लिखी न कलम ने पगडण्डी पर उतरते हुए, अनायास लिखे जाने की बात को पुष्ट करती हुई!
    सायास कहाँ होता है लेखन, ये तो यूँ ही होता है… और इसीलिए सच्चा होता है!

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