ललित कुमार द्वारा लिखित, 06 अप्रैल 2012
भीतर क्या है कोई न जाने
आहत करना बस ये जग जाने
इनको रखता मैं सदा ही बंद
बाहर का जग मुझे नहीं पसंद
विकृत शरीर में सुंदरता बन
यहाँ अंदर रहता है मेरा मन
तुम आओ तो धीरे-से दस्तक देना
फिर हौले से लेना मुझे पुकार
कठोर काठ के बने नहीं हैं
हैं कोमल मेरे हृदय द्वार!
bahut sunder
waah!
waah!
bahut hi badhaiya….komal bhaw liye hue
bade sunder hai apke vichar,apki kivtaon per aata hai bs pyar pyar pyar.
अति प्रिय….. भावनात्मक अभिव्यक्ति!
मेरी
बेबसी मुझे सताती है
रात में सोने ना दे, न दिन
में चैन
लोग चाहते है हो मेरी
बेबसी नंगा
क्यों
अपने को नंगा करू लोगो के सामने
इससे
बेहतर तो है चुप रहना
खून की धूंट पिके रहना
अगर कोई सचमुच मुझे चाहता हैं
वह
जरुर आयेगा मेरे पास
न मेरे
कोमल ह्रदय को टटोलेगा
न मेरे
मज़बूरी को कमजोरी बतायेगा
न मेरे घर आने के लिए वह
दस्तक देगा
न मेरे ह्रदय की चोट को
कचोटेगा
——-प्रेमचंद मुरारका
Very nice.
‘बाहर का जग मुझे नहीं पसंद’
मुझे भी नहीं…
आपके कोमल हृदय द्वार पर प्यारी सी दस्तक हो, इसके लिए हाथ जोड़े खड़े हैं प्रभु के समक्ष!
सुन्दर अभिव्यक्ति!
wow its heart touching poem
bahut khoob……
तुम आओ तो धीरे-से दस्तक देना
फिर हौले से लेना मुझे पुकार
कठोर काठ के बने नहीं हैं
हैं कोमल मेरे हृदय द्वार!
आपकी ये पंक्तिया मन को भा तो गई.. पर हां पढ़ने मे अच्छी लगती है.
तुम आओ तो धीरे-से दस्तक देना
फिर हौले से लेना मुझे पुकार
कठोर काठ के बने नहीं हैं
हैं कोमल मेरे हृदय द्वार!
आपकी ये पंक्तिया मन को भा गई.. पढ़ने में अच्छी लगी..
wa wa