ज़िन्दगी श्वेत-श्याम हो गई है

ललित कुमार द्वारा लिखित, 05 अप्रैल 2012

ज़िन्दगी श्वेत-श्याम हो गई है
रंग मेहमानों की तरह जैसे
सम्पन्न हो चुके समारोह से
एक-एक कर विदा हो गए हों

काँच का एक नाज़ुक गिलास
जो अभी कुछ पल पहले तक
नेल-पॉलिश लगे दो खूबसूरत हाथों की
नर्माहट और गर्माहट के बीच
अंगड़ाईयाँ ले इतरा रहा था
जिसे उन दो सुंदर होठों ने
छुआ था कई… कई बार
जो अब उन नर्म होठों के
हर इक ख़ाके से वाकिफ़ था
जिसे उन लम्बी पतली उंगलियों ने
कितनी ही बार सहलाया था
वही गिलास अब
गंदले पानी से भरी
इस्तेमाल की हुई एक प्लेट में
उपेक्षित-सा पड़ा है

अब कोई संगीत नहीं
सब तरफ़ केवल ख़ामोशी है
जगमगाती रोशनी भी नहीं
अब हर तरफ़ अंधेरा है
बस जाने कहाँ से आती है
एक हल्की-सी उजास बाकी है

रंगों को पहन कर रखने में
नाकाम हो गई है
अचानक ही ज़िन्दगी
श्वेत-श्याम हो गई है

7 thoughts on “ज़िन्दगी श्वेत-श्याम हो गई है”

  1. सोचता हूँ  लिखूँ

    तेरी मेरी राहें,जिसकी याद हमें है आती
    हम ना होंगे,कोई बात नज़र नहीं आती
    मैं ख़्वाहिशमंद हूँ,हर तारे का एक तारा साथी
    मैं अकेला मेरा मन अकेला,जज़्बा-ओ-अहसास बाकी
    तुम हो भी और नहीं भी यह प्यार की हक़ीक़त सखी
    हैरान हूँ मैं दर पे नामाबर को पा कर
    ग़मे-हयात को मैनें लफ़्ज़ों में पिरोया है
    कल जाने क्या होगा, इस बेक़रारी में खोये हैं
    मैं बीत रहा हूँ प्रतिपल, मेरा जीवन बीत रहा है
    अब ये वहम दिल में और पल नहीं सकता
    तुम्हारे हाथों की छुअन मैं हर पल चाहता
    देखो, तुम ज़िद ना करो दोस्त कच्चे कान के
    नहीं चाहिए ऐसा प्यार “निस्तब्ध” जीवन से
    ओ बंजारे दिल आओ चलें अब घर अपने
    आज मेरा मन उदास है मेरे गीतों की गलियों में
    दुश्मन है क्या ऐ हवा जी सकने का आधार
    ज़िन्दगी मेरे साथ-साथ चलना
    अब मैंने पर खोल लिए हैं!
    थामोगी या छोड़ोगी, मेरा हाथ ज़िन्दगी
    कुछ पंछी ऐसे होते हैं जैसे पिंजरा और मैं,
    सूरज और मैं, तुम क्षितिज बनो तो बनो
    कर तुम्हारा पाने को, जाने क्या करना होगा
    रात से सुबह तक मैं तुमको याद करूँगा
    मैनें एक परी को मित्र बनाया
    आपके सीधे पल्ले में ये दिल अटक गया
    इक खिड़की की याद, गुच्छा लाल फूलों का
    कल रात जब मेरी तुमसे बात हुई
    तुम कल्पना साकार लगती
    तुम बैठी ऐसी लगती हो अभिव्यक्ति
    मन मरूस्थली,.याद बहार की आती
    ये सावन के मेघ ,सावन गीत,बस इक बार
    गरज तो रहे हो नभ, पर बरसोगे कब फुहार
    बिना तुम्हारे दीवाली फिर क्या तोहार
    प्रयत्न हम तुम्हे अपने दिल में रखेंगें
    आओ ज़िन्दगी एक बार गले मिल लें
    आहत मन, विकृत शरीर दुख को तेरा दर याद रहे
    मुझे कुन्दन बनने की चाह तुम हिम का एक कण
    किसी ख़ामोश शाम को वो एक पल आया था
    सोचता हूँ इस ही पर रोज़ इक कविता लिखूँ

    :सजन कुमार मुरारका 

  2. श्वेत श्याम के बीच कई रंग घुले मिले होते हैं उदासी में भी… इस श्वेत श्याम में भी तो कई शेड्स हैं न…

    रंगों की पूरी टोली आ जाये जीवन में और कविता में भी!

    शुभकामनाएं!

  3. क्या बात है…
    बहुत दिनों बाद आपकी कृति पड़कर बहुत अच्छा लगा..
    कई बार ” उपेक्षित गिलास ” की सी मनःस्थिति होती है..
    कई बार इंसान को इस्तेमाल किये जाने का एहसास होता है…
    बहुत अच्छा चित्रण किया आपने ..
    मज़ा आ गया..

  4. ललित जी प्लेट में रख्खे गंदले पानी के गिलास से ही आदमी के जीवन के कड़बी सच्चाई सामने आती है अगर आप के पास दौलत,पैसा ,सोहरत ,ताकतहै तबतक दुनियाँ आप को पूछती है नही तो आप डिस्पोजल गिलास की तरह इधर- उधर लुढ़कते फिरेंगे बास्तव में इंसान की जिंदगी स्वेत – स्याम है जो रगो के बिना नीरस है

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