ललित कुमार द्वारा लिखित, 26 फ़रवरी 2012 सायं 10:15
दस मिनट में लिखी एक ग़नुक (ग़ज़ल-नुमा कविता)…
बस उसके लिए हुए, हम कहार पालकी के
आगे बहुत हैं देख लो, बाज़ार पालकी के
बाबुल को फिर से देख लूँ, ओ मेरे कहार
सुन खोल दे ज़रा, ये द्वार पालकी के
फ़क़त मज़दूर नहीं, हम मुहाफ़िज़ भी हैं
दुल्हन लिए आते हैं हम कहार पालकी के
ग़ुरूर, हया, दर्द-ओ-ग़म से लिपटे देखे हैं
मुख्तलिफ़ होते हैं शख्स, सवार पालकी के
पहली दफ़ा गए हैं, वो जुआघर की ओर
बस कि दिन रह गए, दो-चार पालकी के
बासेहत थे मगर, फिर दौलत पा गए
तब से हुए हैं बेबस, बीमार पालकी के
तेरे कदम फिर जाने, कब लौट के आएँ
सोलह किए हैं हमने, सिंगार पालकी के
कोई चश्मे-बद, नाज़ुक-बदन को लग गई
अर्सा गुज़रा नहीं हुए, दीदार पालकी के
ग़ुरूर, हया, दर्द-ओ-ग़म में लिपटे देखे हैंमुख्तलिफ़ होते हैं शख्स सवार पालकी के
क्या बात है.. खूबसूरत पंक्तियाँ !
bahut acche !!
कवितायेँ अक्सर दस मिनटिया ही होती हैं… कभी कभी तो दो मिनटिया भी, पर
नेपथ्य में जिन अनुभवों से गुज़र कर लिखी गयी होती हैं… वो युग हो सकते
हैं, सदियाँ हो सकती हैं… या फिर लम्हे भी!
सुन्दर लिखा है आपने!
अतिसुन्दर हिर्दय स्पर्शी