रश्मि प्रभा जी और विटामिन ज़िन्दगी...
मुम्बई निवासी आदरणीय मित्र और कवियत्री रश्मि प्रभा जी को जब "विटामिन ज़िन्दगी" की प्रति मिली तो उन्होनें निर्णय लिया कि वे पुस्तक को पढ़ने के साथ-साथ ही अपने मनोभावों को दर्ज करती रहेंगी। रश्मि जी, अपने मनोभाव फ़ेसबुक पर पोस्ट करती रहती हैं। मैं भी रश्मि जी की इन अनमोल भावनाओं को समेट कर अपनी झोली भरता चल रहा हूँ।
इस पन्नें को विशेष-रूप से विटामिन ज़िन्दगी पर रश्मि जी की टिप्पणियों को संजोने के लिए बनाया गया है। पुस्तक को इतना आत्मसात करके पढ़ने वाले पाठक पा कर कोई भी लेखक धन्य हो जाएगा!
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (9)
कभी मैं दादी की जगह पर होती हूँ
बन जाती हूँ माँ
तो कभी पिता,
असमर्थता की रुकावटों से लड़ती हुई,
कभी लेखक को जीती हूँ।
छूती हूँ धीरे से बैसाखियों को,
और मुड़कर देखती हूँ,
चपल हवाओं को...
प्रश्न करती हूँ,
लगाओगी मुझसे बाज़ी?
हौसलों को मुट्ठी में भींचकर कहती हूँ,
सोच-समझकर जवाब देना।
यह विटामिन ज़िन्दगी मुझे धरती से पाताल, पाताल से पहाड़, पहाड़ से आकाश तक ले जा रही है। हाँ बन्धु, यूँ भी मुझमें हौसले की कमी नहीं थी, और अब हौसला मुझे देखकर हैरान है।
पढ़ाई का बोझ लिए, वैद्य जी के इलाज से गुजरते हुए, शायद लेखक की जगह कोई उदास होता, किस्मत को कोसता, लेकिन लेखक खुश था, क्योंकि वैद्य जी के इलाज से वह बैठ सकता था, और शरीर को खींचकर आगे ले जाने की स्थिति में आ चुका था। और इसके बाद वैद्य जी ने विदा ले ली, उनके सामर्थ्य की सीमा यहीं तक थी।
वैद्य जी के हिस्से से इतना ही विटामिन मिला, जिसके लिए लेखक कृतज्ञ है।
बैठने के साथ अब बच्चा लेखक पढ़ना चाहता था, लेकिन माँ सरस्वती की उँगली थामने के क्रम में उसने जाना कि उसके आसपास सब उसे असहाय, बेबस समझ रहे। हर व्यवहार के बदलाव ने उसे तोड़ते, मायूस करते हुए बदलना शुरू किया ।
नन्हीं उम्र में बड़ी घबराहट होती है, और समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा, जो बड़ी बड़ी बातें करता है, वह नन्हें से मन से बहुत उदासीन रहता है। बुरी तरह से टूट जाने के बाद हौसले का पौधा पनपता है... वृक्ष होने के लिए अपने ही आंसुओं से सिंचन होता है। ये आँसू ही विटामिन हैं, जो पनपना, विशाल होना, छाया देना सिखलाते हैं।
समय निकालिये, इस ज़िन्दगी से मुखातिब होइए और कुछ हद तक ही सही, अपनी सोच, अपनी अनुभूतियों को परिष्कृत कीजिये।
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (8)
निःसंदेह, इस पुस्तक के जरिये मैंने डॉक्टर जोनास सॉक को जाना, जिन्होंने पोलियो के टीका के विषय में बताया। लेकिन, इसे जानने तक, इसे अपनाने तक कितनों के आगे ज़िन्दगी तांडव कर चुकी थी और डगमगाहट से खुद को रोकने के लिए एक बहुत बड़ी संख्या आत्मविश्वास की डोर थामने के लिए अपने आप को तैयार कर रही थी।
जुझारू, प्रयत्नशील लोगों से सीखिए, लेकिन कभी उनको बिखरते हुए, प्रलाप करते देखें, सुनें तो सकारात्मकता का ज्ञान मत दीजिये, क्योंकि जुझारू से अधिक कोई क्या सकारात्मक होगा! वैसे भी मेरा निजी ख्याल है कि "हमारी सकारात्मकता यही है कि हमने लक्ष्य को पाने के लिए सारे नदी-नालों, खाइयों को पार कर लिया। लेकिन जिन ज़ख्मों के निशान शरीर और मन पर पड़े हैं, उनको भुला देना, सकारात्मकता नहीं, अगली रुकावटों को निमंत्रण देना है !"
कितने सारे नुस्खों से गुजरते हुए एक बच्चे के जीवन से गति चली गई। इसकी बात, उसकी बात - यह खुराक, वह खुराक... कोशिश की वैष्णवी गुफ़ा से गुजरते गुजरते, कितना मन छिला, कितना शरीर - कौन कब तक सुनता है। "शायद ही कोई सुनता है" के निष्कर्ष के साथ लेखक ने विटामिन ज़िन्दगी का मरहम बनाया, खुद को उदाहरण बना रुलाया, साथ ही बहुत कुछ आत्मसात करने का हौसला दिया है।
यह हौसला विटामिन से भरा है - लीजियेगा ज़रूर
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (7)
एक किताब है "विटामिन ज़िन्दगी", कुछेक पन्नों का। लेकिन इन पन्नों की हताशा,खुद को संयमित करने की,एक लक्ष्य साधने की उम्र बड़ी लम्बी है।
वह मेरी शारीरिक अयोग्यता पर हंसा -- इस एक वाक्य में अनगिनत सन्नाटे होते हैं, जिनकी प्रतिध्वनियाँ अट्टाहास करती हैं, दिल-दिमाग की नसों को बेरहमी से मरोड़ती हैं... आँखों से दिखाई देनेवाली, पढ़ी जानेवाली ज़िन्दगी - आसान नहीं होती !!!
पानी को छूकर एक दिन में हेलेन ने पा नहीं कहा था । एक बच्चा भी एक दिन में बोलना नहीं सीखता, सुनने,फिर तुतलाने और फिर स्पष्ट शब्दों को दुहराने में बहुत फासला होता है । चलने-दौड़ने के मध्य कई बार गिरता, उठता है आदमी ! फूटे घुटने, मरहम, दर्द... कोशिश की यात्रा चलती जाती हैं। कल-आज और कल में अप्रत्याशित घटनाएं और संभावनाएं होती हैं, ज़िन्दगी चुटकियों में विटामिन नहीं होती, कई शोध होते हैं!
लेखक ने सुबह से रात तक का शोध किया, अनकहे शब्दों के गर्म शीशों से छलनी हुआ, तिरछी मुस्कुराहटों को झटका, और एक नहीं, दो नहीं ... कई जगहों पर मील का पत्थर बना।
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (6)
सबकुछ स्पष्ट होने के बाद जिजीविषा ने दस्तक दी, हौसले की रास थमाई, पूरा परिवार अंतहीन लड़ाई के लिए तैयार हुआ।
इस बात से परे मेरे सामने है एक बच्चा, जिसके सारे खेल उससे दूर हो गए और वह गहराई से कुछ समझने की उम्र से बहुत दूर था ... दुखद था, लेकिन शायद निराशा से निकलने के लिए, हर बाधा दौड़ से आगे बढ़ने के लिए उसका टूटना ही उसकी ताकत बनने लगा। बैसाखियों पे खड़ा यह अम्मा का आज का ललति को देख मैं अस्पष्ट शब्दों में बुदबुदाती हूँ, अपनी दहलीज़ से दुआ करती हूँ, कि समय जब जब बेरहम हो, अपने विश्वास को अर्थ देना। यूँ ही कहना चाहती हूँ:
चाह लो
और वही आसानी से मिल जाये
तो सीखोगे क्या?
प्रयास क्या करोगे?
अनुभव क्या संजोवोगे?
चाह लेना बड़ी आसान बात है
पाना - एक साधना है
प्रयास दर प्रयास
गर्मी से बुरा हाल न हो
तो गर्म पानी में शीतलता नहीं मिलेगी
हाथ पैर जमे नहीं
तो आग ढूँढोगे नहीं...
बंधू,
चाहो - खूब चाहो
फिर उस दिशा में बढ़ो
गिरो, अटको, रोवो
पाँव के छाले देखो
फिर चाहने का अर्थ जानो
देखो, समझो
- जो चाह हुई
उसके मायने भी थे या नहीं
और अगर थे
तो तुम्हारी थकान में
जो मुस्कुराहट की धूप खिलेगी
उसका सौंदर्य अद्भुत होगा…
पढ़ते हुए हेलेन केलर की याद आती रही ... !
हेलेन केलर (27 जून 1880 - 1 जून 1968) एक अमेरिकी लेखक, राजनीतिक कार्यकर्ता और आचार्य थीं। वह कला स्नातक की उपाधि अर्जित करने वाली पहली बधिर और दृष्टिहीन थी।जन्म के समय हेलन केलर एकदम स्वस्थ्य थी।उन्नीस महीनों के बाद वो बिमार हो गयी और उस बिमारी में उनकी नजर, ज़ुबान और सुनने की शक्ति चली गयी।अपने जीवन में संघर्षो के दौर को पार करके हेलन केलर ने समझ लिया था कि जीवन में यदि संघर्ष किया जाए, तो कोई काम ऐसा नहीं है जिसे हम ना कर सकते हो। यहीं सोच लेकर हेलन केलर ने समाज के हित के लिए कदम बढ़ाया और वो अपने जैसे लोगों को जागरूक करने निकल पड़ी।
हेलेन केलर अपनी यही सोच हर जगह जाकर बताती कि व्यक्ति चाहे शरीर से कितना भी अकुशल हो लेकिन उसे अपने आपको कुशल अपनी कौशल के द्वारा बनाना चाहिए।आज हेलेन की जगह यह विटामिन ज़िन्दगी है, यानी लेखक ललित। और आसपास एक दुआ लिए परिवार।
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (5)
और अचानक होनी के मुख से एक चीख निकली, दरो-दीवार स्तब्ध रह गए। वैष्णो देवी की यात्रा, कोहरे में डूबता उतराता समय। बुखार से तपता चेहरा ... जोरों से उमड़ती रुलाई, कारण से अनजान बस वह रोना चाहता था। शायद उसे आगत का आभास भयभीत कर रहा था। बच्चे कह भले न पाएं, लेकिन समझ जाते हैं अनहोनी की आहटों को।
अनहोनी बाल बिखराये खड़ी थी, और... और वह खड़ा नहीं हो सका। डॉक्टर के शब्द गर्म लावे की तरह पिघलकर कानों में जा रहे थे, "नहीं, इसका कोई इलाज नहीं है"।
पोलियो के हस्ताक्षर ने जीने का ढंग ही बदल दिया, फिर भी - समय और अपनों ने विरोध में उसके बीमार बचपन को कई दफा खड़ा करने की कोशिश की ।लेकिन वह बच्चा बार बार गिरकर अपना सत्य जान चुका था। पोलियो अवरोध बन सामने था, और दौड़ते दौड़ते गिर जानेवाले बच्चे के आगे ज़िन्दगी जंग सी खड़ी थी। जंग के समकक्ष ही उसकी आत्मशक्ति डटी थी। ऐसा नहीं कि वह रोया नहीं, रोया बहुत रोया, लेकिन आंसुओं की हर बून्द में कुछ ठानता गया। अंधेरे में घबराहट होती है कुछ देर के लिए, लेकिन चाह लेने के बाद एक अलौकिक शक्ति साथ चलने लगती है, तभी तो मिलती है विटामिन ज़िन्दगी!
और इसीलिए लिखी गई है विटामिन ज़िन्दगी ताकि मिल सके आपको अलौकिक शक्ति और आप पाएं अपना लक्ष्य।
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (4)
एक सामान्य परिवार, जहाँ रोटी की जुगत ही सर्वोपरि थी, वहाँ शिक्षा की चाह का होना, लेकिन आर्थिक समस्या की वजह से उसे रोक देना एक समझौता ही था।
धड़कनें तेज हैं, अनहोनी की आहटें तीव्र हैं, जानते हुए भी कि आगे दर्द का सैलाब है, मन उस छोटे गोलमटोल बच्चे को कुछ देर देखना चाहता है ।
लेकिन उसे तो अपनी वही ज़िन्दगी याद है, जिसने उसे लहरों के विपरीत तैरना सिखाया। लहरों के साथ कोई भी तैर सकता है, असली खिलाड़ी तो वही है, जो लहरों के विपरीत तैरना जाने... लहरों के विपरीत ही मिलती है विटामिन ज़िन्दगी, बस धैर्य चाहिए और आत्मविश्वास ।
अद्भुत आत्मविश्वास की आग है यह किताब, जिसकी एक एक चिंगारी ज़िन्दगी बदलने का सामर्थ्य रखती है। तो देर किस बात की, आँखों को भरने दीजिये घूँट विटामिन ज़िन्दगी का
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (3)
आह ! सर्वश्रेष्ठ छात्र की खुशी को जब तक पाठक महसूस करता है, क्षुद्र मानसिकता वाले सहपाठी का कर्कश स्वर सिर्फ लेखक को नहीं चीरता, मुझ जैसे पाठक को भी लहूलुहान कर जाता है।
जब कोई कतरा कतरा पिघलता है तब मेरा पूरा अस्तित्व सिर्फ माँ का होता है और वेदना की कीलें मुझे थोड़ी देर के लिए ईसा मसीह बना जाती है । लेकिन तत्क्षण मैं सम्भल जाती हूँ, जब बारहवीं कक्षा का छात्र रोता है, परन्तु उत्तेजित नहीं होता और दृढ़ निश्चय करता है कि वह अपनी क्षमताओं को साबित करता जाएगा।
समाज के संकीर्ण नज़रिए से गुजरते हुए लेखक ने सिर्फ लक्ष्य को अपना मकसद बना लिया।
(यदि आप जीवन के किसी मोड़ पर इस संकीर्णता की टिप्पणियों से डगमगाते हैं तो इस किताब को पढ़िए और मजबूत बनिये।)
दुख जिसके हिस्से आता है, जिसकी ज़िन्दगी संघर्षों से जूझते हुए खुद को तराशती है, ईश्वर की विशेष दृष्टि उसी पर होती है। तभी तो प्रकृति ने बच्चे की हथेली पर कांटा रखा, और बहते आंसुओं के साथ चूमकर यह आशीष दिया कि जीवन का कोई भी दिन मुर्झायेगा नहीं, जब खुद के रक्त और आंसुओं से सिंचित होगा।
एक अद्भुत शक्ति है यह किताब, वाकई विटामिन से भरी हुई। मन की मजबूती के लिए अवश्य पढ़िए ...
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (1)
पुस्तक का आवरण, समर्पण और बैसाखियों की अभिव्यक्ति आँखों में उमड़ते हैं - दुख बनकर नहीं, एक जिजीविषा बनकर। शरीर, मन, दिमागी सोच के लिए संजीवनी दवा है यह किताब।
जो जूझता है, जो गिरकर उठता है, ठहाकों के गरल के आगे अपने अमृत भरे साहस का घूँट भरता है, वही जीने की कला सिखा सकता है।
मेरी कलम ने भी निश्चय किया है, पृष्ठ दर पृष्ठ चलने का... यह विटामिन ज़िन्दगी निःसंदेह एक उड़ान देगी, मुझे और प्रत्येक पाठक को।
ललित की विटामिन ज़िन्दगी (10)
"विटामिन ज़िन्दगी" धीरे-धीरे बढ़ती उम्र, बढ़ती समझ का वह घुमावदार रास्ता है, जिसमें मैं मौन बढ़ती जा रही हूँ। कुछ दर्द बस जिए जाते हैं, और यह ज़िन्दगी जी गई है। यह कोई प्रेम कथा नहीं, एक ज़िन्दगी की अनुभूति है। किसे दोष दूँ? किसके सर पर थरथराते हुए हाथ रखूँ! डबडबाई आँखों को शब्द दूँ, बहते आंसुओं के आगे छाये धुँधलेपन का ज़िक्र करूँ या समय को आक्रोश से देखूँ!? या करूँ होनी से सवाल!!!
इस जीवन को पढ़ते-पढ़ते, शून्य में खुद से संवाद करते हुए, मैं कैसे दुहराऊँ बच्चन की ये पंक्तियाँ?
"जो बीत गई सो बात गई"
शरीर और आत्मा इन बीती बातों से कहाँ मुक्त हो पाता है!